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सिर्फ शुद्ध आत्मा पर ही ध्यान दो। आत्मा को जानो और समझो। उसी का ध्यान करो, उसी पर विश्वास करो और उसी का आचरण करो।
उसके बाद आचार्य ने आत्मा के तीन प्रकार बताए हैं-1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, 3. परमात्मा।
1. बहिरात्मा- बहिरात्मा वह है, जो शरीर, मकान, दुकान और परिवार आदि बाहरी पदार्थों में अपनापन मानता है, उनको अपना मानता है।
2. अन्तरात्मा- जो अपने अन्तरंग ज्ञान तत्त्व को ही अपना मानता है, वह अन्तरात्मा है।
3. परमात्मा- जो आत्मा को जानकर आत्मा में ही लीन हो जाता है, शुद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, वह परमात्मा है। परमात्मा के अनेक नाम हैंनिर्मल, केवल, शुद्ध, प्रभु, अव्यय, परमेष्ठी, परात्मा, परमात्मा, ईश्वर और जिन आदि।
बहिरात्मा बहिरात्मा को हम इन उदाहरणों द्वारा आसानी से समझ सकते हैं।
• बहिरात्मा अपने आत्मज्ञान से दूर होता है। वह अपने शरीर को ही आत्मा के रूप में जानता है। जैसे-बहिरात्मा मनुष्य शरीर में हो तो स्वयं को मनुष्य मानता है। स्त्री-शरीर में है तो स्वयं को स्त्री जानता है। तिर्यंच-शरीर में है तो तिर्यंच जानता है। परन्तु वास्तव में आत्मा मनुष्य, स्त्री, पुरुष और तिर्यंच नहीं है।
• बहिरात्मा, अपने शरीर के समान ही दूसरों को भी स्त्री, पुरुष, मनुष्य और तिर्यंच आदि समझता है। बहिरात्मा स्व और पर को भिन्न-भिन्न नहीं जानता। स्व को पर, पर को स्व मानता है। जैसे-स्वयं को गोरा, काला, जवान, बूढ़ा समझता है, दूसरों को गोरा और काला समझता है। उसकी सारी दृष्टि शरीर पर ही केन्द्रित होती है। शरीर के कारण ही वह पुत्र, पत्नी, पति और माता-पिता आदि को अपना मानता है।
• शरीर में आत्मबुद्धि होना संसार के दुखों का मूल कारण है। इसके कारण ही शरीर के नाश पर वह दुखी हो जाता है। संयोग में खुश और वियोग हो जाने पर दुखी हो जाता है।
• बहिरात्मा मानता है कि मैं बोल रहा हूँ, बीमार हो रहा हूँ, तरक्की कर रहा हूँ, नीचे गिर रहा हूँ आदि-आदि।
188 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय