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________________ आत्मा का अनुभव किया जा सकता है। यदि हम एकाग्रता से, गम्भीरता से उस पर ध्यान दें तो हम आत्मा को समझ सकते हैं। इसके लिए हमें प्रतिदिन थोड़ी देर ध्यान करना चाहिए। हमें चिन्तन करना चाहिए कि मैं एक हूँ, मैं निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, शरीर से भिन्न हूँ और ज्ञानस्वभावी हूँ, परमाणु मात्र दूसरी वस्तु मेरी नहीं है। मेरा जन्म नहीं है, मेरी मृत्यु नहीं है, मुझे रोग नहीं है, मैं बालक नहीं हूँ, मैं वृद्ध नहीं हूँ, यह सब शरीर की अवस्था है। मैं तो चैतन्य तत्त्व हूँ। अनादि और अनन्त हूँ। ऐसा ध्यान करना चाहिए। ___ जो जीव परपदार्थों के प्रति ममता रखता है, वह दुखी होता है और जो परपदार्थों से ममता नहीं रखता, वह अपनी आत्मा के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करके सुखी रहता है। क्योंकि ममता दुख का कारण है और समता सुख का कारण है। यह हमारे ऊपर है कि हम क्या चुनते हैं, दुख या सुख। संसार में जितने भी परपदार्थ हैं, वह सब हमने पिछले जन्मों में अनेक बार भोग लिए हैं, ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं हैं, जो हमें आज तक प्राप्त नहीं हुआ है। सारे पदार्थ हम बार-बार भोग कर छोड़ चुके हैं। फिर आज इन्हें पाकर हमें कौन सा लाभ प्राप्त होगा? परपदार्थों ने हमें पहले भी सुखी नहीं किया, आज भी सुखी नहीं कर सकते हैं। तुम दूसरों का उपकार करना छोड़ दो। पहले अपना उपकार करने में समय लगाओ। अपनी पूरी इच्छाशक्ति से और दृढ़ता से अपना उपकार करो। जो व्यक्ति अपना उपकार छोड़कर दूसरों की भलाई में लगा रहता है, वह अज्ञानी है, मूर्ख है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति मूर्ख को ज्ञानी और ज्ञानी को मुर्ख नहीं बना सकता। सब निमित्त मात्र हैं। सब अपने-अपने कर्मों और निमित्त से अपना लाभ प्राप्त करते हैं। एकान्त में बैठकर अपने मन को समझाओ। उसको देखने की कोशिश करो, उसको अनुभव करने की कोशिश करो। जब हमें आत्मा का अनुभव होने लगेगा, तब हमें पाँचों इन्द्रियों के विषय सुलभ होने पर भी रुचिकर नहीं लगेंगे। आत्मा के आनन्द के सामने संसार का आनन्द दुखरूप लगेगा। जब तुम्हें आत्मा का अनुभव होगा, तब तुम एक ऐसे वीतरागी आध्यात्मिक पुरुष बन जाओगे, जो सारे विश्व को जाल (मकड़ी के जाल) के समान देखता है, पर इस जाल में फंसता नहीं है। वह कहीं भी अपनत्व स्थापित नहीं करता, किसी से राग-द्वेष नहीं करता। वह अपने शरीर की भी परवाह नहीं करता। वह जहाँ रहता है, वहीं उसे आनन्द 184 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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