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मोह भाव को छोड़ना चाहिए। क्योंकि कोई किसी के पास शाश्वत नहीं रहता है। पति, पत्नी, पुत्र और माता-पिता परिवार के सब लोग एक पेड़ पर इकट्ठे हुए पक्षी के समान हैं। सभी को समय आने पर अलग-अलग स्थान पर अलगअलग मंजिल पर चले जाना है। परमार्थ से कोई किसी का नहीं है। यह बात हम सबको अच्छे से समझना चाहिए ।
धन के प्रति मोह रखना दुख का कारण है कोई भी व्यक्ति धन, परिग्रह आदि को जोड़-जोड़कर सुखी नहीं हो सकता है। धन से व्यक्ति सुखी होता है, यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है । परिग्रह दुख का ही कारण है । जैसे कोई व्यक्ति बुखार आने पर घी पीकर अपने को स्वस्थ मान ले तो यह उसकी गलत भ्रान्ति है, उसी तरह धन अर्जित होने पर हम सुखी होंगे - यह मान लेना बहुत बड़ी भ्रान्ति है । अतः धन, परिग्रह आदि पदार्थों के प्रति हमारा दृष्टिकोण सही होना चाहिए ।
जैसे - किसी जंगल में आग लग जाने पर सारे पशु-पक्षी जल रहे हैं । उसी जंगल में पेड़ पर एक आदमी बैठा है और वह यह सब देख रहा है। लेकिन वह यह नहीं समझ रहा है, मैं भी जलनेवाला हूँ । ठीक इसी तरह जंगल में बैठे उस आदमी की तरह हम हैं। क्योंकि इस दुनिया में प्रतिदिन अनेक दुर्घटनाएँ, मृत्यु, समस्याएँ और अनेक रोग हो रहे हैं। सभी की तरह एक दिन हम भी इस दुनिया से चले जाएँगे। यह बात हम सब देखते और जानते हैं । मगर यह नहीं सोचते कि एक दिन यही स्थिति हमारे साथ भी होनेवाली है।
आचार्य पूज्यपाद वैराग्य की शिक्षा देते हुए कहते हैं कि अब तुम अध्यात्म विद्या को समझ लो, शरीर को छोड़कर आत्मा को जान लो । यदि तुम शरीर के उपकार में लगे रहे तो आत्मा का नुकसान हो जाएगा और फिर तुम आत्मा को नहीं समझ सकते। अनादिकाल से हम शरीर और परिवार को ही सम्भाल रहे हैं, अतः अब हमें शरीर से ध्यान हटाकर आत्मा को समझना चाहिए ।
एक तरफ दिव्य चिन्तामणि रत्न 'आत्मा' है और दूसरी ओर खली का टुकड़ा ( पर पदार्थ ) है । तो बुद्धिमान व्यक्ति दिव्य चिन्तामणि रत्न अर्थात् आत्मा को ही प्राप्त करना चाहता है। इस आत्मा को ध्यान के द्वारा हम प्राप्त कर सकते हैं। हमारे जीवन की बड़ी उपलब्धि तभी होगी, जब हम आत्मा का अनुभव कर लेंगे।
आत्मा शरीर के अन्दर रहता है, पर वह शरीर नहीं है । उसे हम अनुभव से जान सकते हैं। शरीर में जो जानने-देखनेवाली चैतन्य शक्ति है, जो हमें महसूस होती है, वही आत्मा है। आत्मा को जाना जा सकता है, समझा जा सकता है। इष्टोपदेश ::
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