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कहीं भी होते हैं। उनको अवधिज्ञान होता है। जिससे वे मनुष्य को कभी सुख देते हैं, कभी दुख देते हैं। ये आठ प्रकार के होते हैं किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच।
3. ज्योतिषी देव : जैन धर्म के अनुसार सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारे-ये सभी ज्योतिष देव हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारे–इनके अन्दर देव रहते हैं। उन्हें ज्योतिषी देव कहते हैं।
____4. वैमानिक देव : वैमानिक देवों को कल्पवासी देव भी कहते हैं। ये 16 प्रकार के होते हैं-सौधर्म, ईशान, आदि-आदि। ये देव आज दिखाई भी नहीं देते। ये सिर्फ भगवान एवं तीर्थंकर के पंचकल्याणकों में जाते हैं। किसी की परीक्षा लेने भी जाते हैं। सोलहवें स्वर्ग में सबसे ज्यादा सुख है, जबकि वहाँ सबसे कम परिग्रह हैं।
इस प्रकार इस अध्याय में देवों और देवलोक का विस्तृत वर्णन किया गया
पाँचवाँ अध्याय ( 42 सूत्र) पाँचवें अध्याय में 42 सूत्र हैं। यह अध्याय दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें अजीव तत्त्व का वर्णन किया है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
और काल-इन छ: द्रव्यों का वर्णन आया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्रव्य के प्रदेशों की संख्या, क्षेत्र, प्रत्येक द्रव्य के कार्य आदि बतलाए हैं। प्रत्येक द्रव्य का विस्तार से वर्णन किया है। छठा अध्याय (27 सूत्र) 27 सूत्रों में आस्रवतत्त्व का स्वरूप और उसके भेद-प्रभेद आदि बतलाए हैं।
आस्रव दो प्रकार के होते हैं-(1) अशुभ आस्रव, (2) शुभ आस्रव।
मन-वचन-काय की क्रिया योग है, वही आस्रव का कारण है। यदि वह क्रिया शुभ हो तो पुण्यात्रव होता है और अशुभ हो तो पापास्रव होता है।
आस्रव दो अन्य प्रकार का भी है-साम्परायिक और ईर्यापथिक।
जो जीव क्रोध, मान, माया और लोभ चारों कषाय से युक्त होते हैं, उन्हें साम्परायिक आसव्र होता है।
जो जीव कषायरहित होते हैं, उन्हें ईर्यापथिक आस्रव होता है।
किन-किन कार्यों को करने से किस-किस कर्म का आस्रव होता है, इसका वर्णन इस अध्याय में किया गया है। 178 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय