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________________ है। उसी प्रकार औपशामिक भाव होते हैं। ये भी थोड़ी देर के लिए अशुभ कर्मों के दब (कम हो) जाने पर उदय में आते हैं। जैसे-हमारा क्रोध कभी-कभी शान्त हो जाता है। जो निर्मल भाव होते हैं, वे औपशमिक भाव हैं। 2. क्षायिक भाव : जैसे-गन्दे पानी में फिटकरी डालने से पानी पूरी तरह साफ हो जाता है, उसमें गन्दगी नहीं रहती। उसी तरह क्षायिक भाव होते हैं। इनमें कषाय पूरी तरह से नष्ट हो जाती है। जो क्षय से होते हैं वे क्षायिक भाव हैं। एक बार क्षायिक भाव (पूर्ण शुद्ध, निर्मल भाव) हो जाने पर पुनः मलिन नहीं होते हैं। ___ 3. मिश्र (क्षायोपशमिक भाव) : जो भाव क्षय और उपशम दोनों से होते हैं वे मिश्र हैं। जैसे-नितारा हुआ पानी। जो साफ भी है और जिसमें थोड़ी मिट्टी गन्दगी भी है। पर इसमें गन्दगी अलग है और साफ पानी अलग है। 4. औदयिक भाव : ये भाव नदी के जल के समान होते हैं जिसमें थोड़ी गन्दगी भी है। जो कर्म के उदय से होते हैं वे औदयिक भाव हैं। 5. पारिणामिक भाव : जो पूरी तरह शुद्ध हैं, साफ पानी जैसे हैं, झरने के पानी के समान पूरी तरह निर्मल हैं, जो पूरी तरह कर्म-निरपेक्ष हैं, वे पारिणामिक भाव हैं। इस अध्याय में आत्मा के उक्त पाँच सूक्ष्म भावों का वर्णन किया है। आत्मा के (जीव के) सूक्ष्म भावों को वर्णन करने के पश्चात् आत्मा (जीव) का लक्षण क्या है? वह बताया है। आत्मा का लक्षण उपयोग (ज्ञान) है। क्योंकि हम आत्मा को (जीव को) आँखों से नहीं पहचान सकते हैं। उसको हम चेतना से ही जान सकते हैं। ज्ञान से ही पहचान सकते हैं। जिसमें ज्ञान (उपयोग) हो, दर्शन हो एवं चेतना हो, वह आत्मा है, वही जीव है। जीव के भी दो प्रकार हैं-संसारी और मुक्त। संसारी जीव के दो प्रकार हैं-स्थावर और त्रस। स्थावर जीव के 5 प्रकार हैं-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और वनस्पति। जैन दर्शन मानता है कि पृथ्वी भी जीव है, अग्नि भी जीव है, जल, वायु और वनस्पति भी जीव है। जो बात विज्ञान आज सिद्ध कर रहा है, जिस पर लाखों रिसर्च चल रहे हैं, वही बात जैनाचार्य हजारों साल पहले लिख चुके हैं, हमें बता चुके हैं। त्रस दो-इन्द्रिय से लेकर पाँच-इन्द्रिय तक के जीवों को कहते हैं। जैसे लट, चींटी, कृमि, भौंरा, मनुष्य। हम सब त्रस जीव हैं। सब जीवों में जानने, देखने 176 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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