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पहला अध्याय ( 33 सूत्र) इस अध्याय में कुल 33 सूत्र हैं। सबसे पहले सूत्र में मोक्षमार्ग बताते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है।
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों का समीचीन श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन दो प्रकार से उत्पन्न होता है-(1) पूर्व के संस्कार द्वारा स्वयं ही, (2) दूसरे के उपदेश द्वारा।
सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान द्वारा ही होता है, अतः सर्वप्रथम जीवादि सात तत्त्वों का समीचीन ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यह समीचीन ज्ञान प्रमाण-नय-निक्षेप से होता है। प्रमाण और नय से ज्ञान-विषयक चर्चा का प्रारम्भ होता है।
तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान को ही प्रमाण माना है और ज्ञान के पाँच भेद बतलाए हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ।
प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष।
जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं, वे प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं, वे परोक्ष ज्ञान हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-ये दो परोक्ष ज्ञान हैं। शेष तीन ज्ञान (अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान) प्रत्यक्ष ज्ञान हैं।
इस अध्याय में उक्त पाँचों ज्ञानों का वर्णन विस्तार से किया है।
नय प्रमाण का ही एक अंश होता है। प्रमाण और नय में यह अन्तर है कि प्रमाण सम्पूर्ण वस्तु को जानता है और नय उसके एक-एक अंश को मुख्य रूप से और गौण रूप से जानता है। __ प्रमाण और नयों के अनेक भेद-प्रभेद इस अध्याय में बताए हैं। दूसरा अध्याय ( 53 सूत्र) द्वितीय अध्याय में 53 सूत्रों में जीव तत्त्व का कथन किया है। जीव के पाँच असाधारण भाव (स्वतत्त्व) हैं
1. औपशमिक, 2. क्षायिक, 3. मिश्र (क्षायोपशमिक) 4. औदयिक, 5. पारिणामिक
1. औपशमिक भाव : इनको हम उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं। जैसे कोई गन्दा पानी होता है, मिट्टीवाला पानी होता है। उसमें मिट्टी नीचे जम जाती
तत्त्वार्थसूत्र :: 175