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अनन्तानन्त हैं । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य एक-एक हैं । कालद्रव्य असंख्यात हैं।
इस प्रकार इस पहले अधिकार में छह द्रव्यों का स्वरूप समझाया गया है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।
2. सप्ततत्त्व-नवपदार्थ अधिकार ( 11 गाथा )
दूसरा अधिकार जैन दर्शन की पूरी तत्त्व व्यवस्था को समझाता है। गाथा संख्या 28 से लेकर 38 तक मात्र 10 गाथाओं में आस्रव आदि तत्त्वों एवं पुण्य-पाप का लक्षण एवं भेद बताए हैं।
सात तत्त्व
जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष - इन सात तत्त्वों को एक बहुत सुन्दर उदाहरण से हम इस प्रकार समझ सकते हैं।
एक नगर था। नगर के पास एक नदी बहती थी। नगर में एक आदमी था । उसे रोज नदी के उस पार दूर दिव्य प्रकाश दिखाई देता था । वह रोज सुबह-शाम उस प्रकाश को देखा करता था । नदी के उस पार जाना कठिन था, पर उसके मन में उस नगर में जाने की बहुत इच्छा थी । एक दिन उसने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो, मैं उस नगर में जरूर जाऊँगा । उसने अपने घर का सारा सामान बेचा। कुछ रुपये और जरूरी सामान एक पेटी में डालकर वह नदी के उस पार चल दिया।
नाव में जो आदमी बैठा है, वह 'जीव तत्त्व' है। उसने जो सामान साथ लिया है, रुपये और पेटी आदि, वह ' अजीव तत्त्व' है। उसने जब नाव चलाई तो थोड़ी दूर जाने पर पता चला कि नाव में एक छेद है और उस छेद में से पानी अन्दर आ रहा है। पानी का अन्दर आना आस्रव तत्त्व है। पानी अन्दर आकर दूसरी जगह जमा हो रहा है, इकट्ठा होता जा रहा है। यह 'बन्ध तत्त्व' है । इससे नाव हिलने लगी, डूबने लगी। उसने सबसे पहले कपड़े से छेद को बन्द किया। छेद बन्द करना 'संवर तत्त्व' है । छेद बन्द होने से पानी आना बन्द हो गया, जिससे उसे राहत मिल गयी । परन्तु नाव में जो पानी था, उस पानी को उसने जल्दी ही दोनों हाथों से, कपड़े से और बर्तन से बाहर निकाला। यह 'निर्जरा तत्त्व' है। अब वह नाव से नदी पार करके उस दिव्य नगर में पहुँच गया । वहाँ पहुँचकर उसे परम शान्ति प्राप्त हुई । उसे बड़ा आनन्द आने लगा और वह वहाँ से 168 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय