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है। इसमें राख एवं नमक डाल सकते हैं। पिन और ऑलपिन डाल सकते हैं। इस तरह स्पेस कभी खत्म नहीं होता है ।
जिस प्रकार जब हम टॉर्च जलाते हैं, तो टॉर्च में आगे जो गिलास लगा हुआ है, उसमें हमें स्पेस या जगह दिखाई नहीं देती। उसमें हम हाथ नहीं डाल सकते हैं, लेकिन जैनाचार्य कहते हैं कि इसमें बीच-बीच में छेद हैं, तभी प्रकाश बाहर आ रहा है। यदि छेद या स्पेस नहीं होता तो प्रकाश बाहर कैसे आ सकता था ?
इस तरह हम कह सकते हैं कि आकाश सब जगह है। सभी में व्याप्त है । यह कभी खत्म नहीं हो सकता ।
5. कालद्रव्य : सभी द्रव्यों में जो परिवर्तन होता रहता है, उस परिवर्तन में जो कारण है, वह कालद्रव्य कहलाता है । काल के बिना दुनिया में कुछ भी नहीं होता । जैसे - कपड़ा, मकान और वस्त्रादि में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
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कपड़ा, मकान आदि जीर्ण हो जाते हैं। मनुष्य, स्त्री-पुरुष पचास सौ वर्ष पुराने हो जाते हैं - यह सब काल द्रव्य का ही प्रभाव है। सूर्य, चन्द्रमा, दिन और रात आदि सब काल से ही चल रहे हैं ।
दाल पकने या फसल पकने के लिए उचित साधनों के साथ-साथ काल का भी होना जरूरी है। यदि उचित समय न दिया जाए तो फसल पक नहीं सकती अथवा खराब हो सकती है और दाल भी ।
कालद्रव्य अनन्त प्रदेशी है। वह एक-एक प्रदेश पर टिका हुआ है। जैसेलोकाकाश में अनन्त प्रदेश हैं। एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु टिका हुआ
है।
इस प्रकार काल द्रव्य का स्वरूप बड़े ही सुन्दर और वैज्ञानिक तरीके से इस ग्रन्थ में समझाया है।
अस्तिकाय - जो द्रव्य अस्ति रूप हो एवं कायवान (बहुप्रदेशी) हो, उसे अस्तिकाय कहते हैं ।
'अस्तिकाय' में दो शब्द हैं - एक 'अस्ति' और दूसरा 'काय' । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश - ये सदा रहते हैं, इसलिए इन्हें ' अस्ति' कहते हैं तथा बहुप्रदेशी हैं इसलिए 'काय' भी कहते हैं । इन्हें 'पंचास्तिकाय' कहते हैं । 'पंचास्तिकाय' जैन दर्शन की बहुत बड़ी ठोस अवधारणा है, जिसे आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने 'पंचास्तिकाय संग्रह ' ग्रन्थ में बहुत विस्तार से समझाया है। इसके बाद छह द्रव्यों की संख्या बताई है। जीवद्रव्य अनन्त हैं । पुद्गल द्रव्य
द्रव्यसंग्रह :: 167