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________________ वापस लौटकर आया ही नहीं । यह 'मोक्ष तत्त्व' है। ठीक इसी तरह हमारी आत्मा 'जीव' है । हमारा शरीर, धन, मकान और दुकान सब 'अजीव' हैं । हमारी आत्मा में जो शुभ - अशुभ कर्म आ रहे हैं, वह 'आस्रव' तत्त्व है। आत्मा में आ-आकर हमारी आत्मा में जम रहे हैं, चिपक रहे हैं, वह 'बन्ध' तत्त्व है । और जब जीव को होश आ जाता है कि यह क्या हो रहा है तब वह आत्मा को पवित्र करने के लिए व्रत, समिति रूप संवर धारण करता है । कर्मों का आना और रुकना यह 'संवर' तत्त्व है । फिर वह तप करता है और सारे कर्मों को खिरा देता है, नष्ट कर देता है। यह 'निर्जरा' तत्त्व है । और सारे कर्मों के खिर जाने पर, नष्ट हो जाने पर आत्मा शुद्ध-बुद्ध हो जाता है। वह आत्मतत्त्व को पा लेता है, वीतरागी हो जाता है, केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। यह 'मोक्ष' तत्त्व है। " इस तरह कितने सरल और संक्षिप्त तरीके से ये सात तत्त्व समझाए हैं। सात तत्त्वों की परिभाषा एवं भेद इस अध्याय में दिए गये हैं । परिभाषाएँ बहुत सरल एवं छोटी-छोटी हैं। I नौ पदार्थ पाठक इन्हें आसानी से समझ सकते हैं । इन्हीं सात तत्त्वों में पुण्य और पाप जोड़ देने पर नौ पदार्थ हो जाते हैं। शुभ भाव होने पर पुण्य कर्म होता है । अशुभ भाव होने से पाप कर्म होता है । इस प्रकार इस अध्याय में जैन दर्शन की चार बातों को बहुत ही सरल तरीके से समझाया है 'द्रव्य' की अपेक्षा देखो तो 'छह द्रव्य' हैं ।' क्षेत्र' की अपेक्षा देखो तो 'पाँच अस्तिकाय' हैं । 'काल' की अपेक्षा देखो तो 'नौ पदार्थ' हैं। और 'भाव' की अपेक्षा देखो तो 'सात तत्त्व' हैं । समग्र जैन दर्शन का सार इन चार लाइनों में ही समझा दिया है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से समझाने की यह पद्धति जैनदर्शन की बड़ी महत्त्वपूर्ण पद्धति है । 3. मोक्षमार्ग अधिकार (20 गाथा ) तीसरे मोक्षमार्ग अधिकार में बताया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही मोक्षमार्ग हैं। यह तीनों मिलकर ही एक मोक्षमार्ग है। एक बहुत खास बात इस ग्रन्थ में आई है कि वास्तव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की द्रव्यसंग्रह :: 169
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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