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जैन दर्शन की बहुत बड़ी विशेषता यही है कि इसमें जीव अपने कर्मों का कर्त्ता - भोक्ता स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं ।
• जीव स्वदेह - परिमाणवाला है अर्थात् जीव में संकोच - विस्तार का गुण पाया जाता है, इसलिए जीव जिस शरीर में रहता है, उस शरीर के आकार प्रमाण को धारण कर लेता है ।
जिस प्रकार एक दीपक को यदि छोटे कमरे में रखा जाए तो वह उस छोटे कमरे को ही प्रकाशित करेगा और यदि वही दीपक किसी बड़े कमरे में रख दिया जाए तो वह उस बड़े कमरे को प्रकाशित करेगा। ठीक उसी प्रकार एक जीव जब चींटी का जन्म लेता है, तो वह उसके शरीर में समा जाता है और जब वही जीव हाथी का जन्म लेता है, तो उसके शरीर में समा जाता है। अतः जीव शरीर के अनुसार ही उसमें समा जाता है।
जीव की सातवीं विशेषता यह है कि जीव वर्तमान में चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है, भटक रहा है, अतः जीव संसारी है । संसारी जीवों के भी दो भेद हैं, स्थावर जीव और त्रस जीव । स्थावर में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव आते हैं और त्रस में दो-इन्द्रिय से लेकर पाँच - इन्द्रिय तक के सभी जीव आते हैं ।
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जीव चारों गतियों से छूटकर, मुक्त होकर ऊपर उठ जाता है। जीव सिद्ध बन जाता है। प्राचीन काल में अनेक जीव सिद्ध हुए हैं और भविष्यकाल में भी सिद्ध बनेंगे । यही जैन दर्शन का सिद्धान्त है । जीव की परम अवस्था मोक्ष है।
• यह जीव ऊर्ध्वगति वाला है । जैसे - हवा का स्वभाव है तिरछा बहना । पानी का स्वभाव नीचे बहना है। अग्नि का स्वभाव है ऊपर जाना । इसी तरह जीव का स्वभाव है, ऊर्ध्व गमन करना ।
जिस तरह हवा चलती है तो अग्नि इधर-उधर घूम जाती है । उसी तरह शुभ-अशुभ कर्मों के कारण जीव इधर-उधर भटक जाता है, पर वास्तव में जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन या ऊपर जाना ही है ।
इस प्रकार जीव की ये 9 विशेषताएँ हैं, जिनके द्वारा हम जीव को अच्छी तरह जान सकते हैं ।
2. अजीव द्रव्यों का स्वरूप
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जिसमें ज्ञान, दर्शन और चेतना नहीं हो, वह अजीव द्रव्य है । अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है,
द्रव्यसंग्रह ::
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