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आदिनाथ भगवान को शीश झुका कर नमस्कार करते हैं। उसके बाद छह द्रव्यों का विस्तृत वर्णन करते हैं।
'गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं।'
जैन दर्शन में छह द्रव्य बताए हैं। मूल रूप से द्रव्य दो हैं, जीव और अजीव। अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल-ये पाँच प्रकार हैं। इन पाँचों में जीव द्रव्य मिलाने से छह द्रव्य' कहे जाते हैं।
छह द्रव्यों से मिलकर ही यह जगत, यह दुनिया बनी है। दूसरा कोई इस दुनिया को बनानेवाला नहीं है। इन छह द्रव्यों को समझने से ही पूरे जगत का स्वरूप समझ आ जाता है। पहले अधिकार में इन्हीं जीव और अजीव द्रव्यों को समझाया गया है।
1. जीवद्रव्य का स्वरूप जीव की मख्य नौ विशेषताएँ दूसरी गाथा में बताई हैं। इन्हीं नौ विशेषताओं का विस्तृत वर्णन गाथा 3 से लेकर 14वीं गाथा तक किया गया है, जिनका संक्षेप में परिचय यहाँ प्रस्तुत है
• जीव की पहली विशेषता यह है कि जीव जीता है। वह चेतना (प्राण) वाला है। बिना चेतना के कोई जीव नहीं होता। जहाँ जीव है, वहाँ चेतना है। चेतना जीव को पहचानने का सबसे प्रमुख और महत्त्वपूर्ण उपाय है।
• दूसरी विशेषता यह है कि जीव ज्ञानवाला है, उपयोगवाला है। ज्ञान पाँच प्रकार का होता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, इन 5 सम्यग्ज्ञानों में 3 कुज्ञान (कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअविधज्ञान) मिला देने से आठ प्रकार का ज्ञान हो जाता है।
इनमें से जीव को कोई भी ज्ञान हो सकता है, पर ज्ञान के बिना जीव नहीं हो सकता। जहाँ ज्ञान है, वहाँ जीव है।
• जीव की तीसरी विशेषता यह है कि जीव निश्चय से अमूर्तिक होता है। इसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण नहीं पाए जाते हैं, इसलिए जीव अमूर्तिक है। इसे आँखों से नहीं देख सकते और कानों से नहीं सुन सकते, इसलिए जीव अमूर्तिक
• जीव की चौथी और पाँचवीं विशेषता यह है कि जीव अपने कर्मों का स्वयं कर्ता भी है और स्वयं भोक्ता भी है। जीव अपने काम स्वयं करता है और इसका फल भी स्वयं ही भोगता है।
164 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय