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________________ जीवन बिताने के पश्चात् यदि मुनि बनते हैं, तो वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। इसके बाद इस अध्याय में अभिषेक की विधि बतलाई है और कहा है कि संध्या समय में सामायिक और गुरु का स्मरण करना चाहिए। रात्रि में वैराग्य भावना का चिन्तन करना चाहिए। यथाशक्ति मैथुन त्याग करने की भी शिक्षा इस अध्याय में दी है। इस प्रकार व्रत प्रतिमाधारी श्रावक के लिए यह अध्याय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सातवाँ अध्याय ( 60 श्लोक ) सप्तम अध्याय में शेष नौ प्रतिमाओं का स्वरूप बताया है। इसमें 60 श्लोक हैं । जब श्रावक 11 प्रतिमाओं को धारण कर लेता है, तब वह उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उत्कृष्ट श्रावक के दो प्रकार और उनका स्वरूप भी इस अध्याय में वर्णित है। इन प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन पूर्व में लिखा जा चुका है । (देखें पृष्ठ 121-122) आठवाँ अध्याय ( 11 श्लोक ) अष्टम अध्याय में साधक श्रावक के भेद बताए हैं। इसमें 11 श्लोक हैं। इन श्लोकों में वर्णित है कि इसमें जो साधना करता है, उसे साधक कहते हैं । जो जीवन का अन्त समय आने पर शरीर, आहार और मन-वचन-काय से व्यापार को त्यागकर ध्यानशुद्धि के द्वारा आनन्दपूर्वक आत्मा की शुद्धि की साधना करता है, वह साधक है। पं. आशाधरजी कहते हैं कि मुनिपद धारण करना सबसे उत्तम है, किन्तु किसी कारणवश मुनिपद धारण न कर पाए तो अन्त में जिनलिंग या सल्लेखना धारण करनी चाहिए। इस अध्याय में सल्लेखना को बहुत ही सरल, सुन्दर एवं विस्तार रूप से समझाया है। जो उत्कृष्ट श्रावक सल्लेखना ग्रहण करना चाहते हैं, वह एक बार इस ग्रन्थ का अध्ययन अवश्य करें । अध्याय के अन्त में आशाधरजी ने आराधक के भेद बताते हुए उसे समाधि के साथ मरण करने को कहा है और उसका विशेष फल भी बताया है । यथा 160 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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