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सावधान रह सकते हैं और अपने दोषों को दूर कर सकते हैं। दुर्लभ रत्न के समान प्राप्त श्रावक धर्म में आलस्य छोड़कर व्रतों का पालन करना चाहिए। श्रावक को नित्य कृत्य से निवृत्त होकर (प्रतिदिन के कार्य पूर्ण करके) आठ द्रव्यों से देवदर्शन-पूजन आदि करना चाहिए।
आशाधरजी ने मन्दिर जाते समय से लेकर मन्दिर से निकलकर जाने तक की जो विधि बताई है वह भी बहुत ही उपयोगी है।
प्रात:काल का समय है। सूर्योदय हो रहा है। उसे देखकर मन्दिर की ओर जाता हुआ श्रावक सूर्य को देखकर अर्हन्तदेव का स्मरण करता है कि उन्होंने जगत का अज्ञानान्धकार दूर किया था। जिनमन्दिर के शिखर पर लगी हुई ध्वजा को देखकर उसे जो आनन्द होता है वह पाप को दूर करनेवाला है। पैर धोकर वह मन्दिर में प्रवेश करता है, 'निःसही-नि:सही' कहते हुए जिनालय के भीतर प्रवेश करता है, प्रसन्न होते हुए जिन भगवान को तीन बार नमस्कार करता है, स्तुति पढ़ते हुए तीन प्रदक्षिणा देता है। वह विचारता है कि यह मन्दिर समवसरण है, यह जिनबिम्ब साक्षात् अर्हन्तदेव हैं। मन्दिर में उपस्थित स्त्री-पुरुष समवसरण में स्थित भव्यप्राणी है। ऐसा विचारते हुए वह हृदय से सबकी अनुमोदना करता है। जो जिनवाणी का स्वाध्याय करते हैं उन्हें साक्षात् समवशरण का लाभ प्राप्त हो सकता है। श्रावक आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं की यथायोग्य विनय करता है। शारीरिक और मानसिक कष्टों से पीड़ित दीन पुरुषों के कष्टों को दूर करने का प्रयत्न करता है।
जिनालय में हास्य, श्रृंगार युक्त चेहरा, रूप विलास, खोटी कथा, कलह, निद्रा, थूकना और चारों प्रकार का आहार, ये सात कार्य नहीं करना चाहिए।
योग्य धन कमाने की विधि- प्रात:कालीन धार्मिक कर्म समाप्त करने के बाद श्रावक को धन के उपार्जन करने में जिनधर्म का घात न हो, ऐसी सावधानी बरतनी चाहिए। माध्यस्थ भाव से सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए। व्यापार में होनेवाले हानि-लाभ से हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए।
सच्चा श्रावक मध्याह्न भोजन करने से पूर्व अतिथि की प्रतीक्षा करता है। अपने परिवार के सब लोगों को भोजन कराता है। आग्रहवश साधर्मी के भी घर जाना हो तो रात्रि में बनाया गया भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। श्रावक को मनोरंजन के नाम पर पाप के साधनों (सिनेमा, नाटक आदि) से भी बचना चाहिए।
सच्चे श्रावक की दिनचर्या ऐसी ही पवित्र होती है। ऐसे पवित्र श्रावक
धर्मामृत :: 159