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चाहिए, जहाँ वे हों। इसमें भी हिंसा का दोष लगता है। __इसके बाद आशाधरजी ने अचार, मुरब्बा, पापड़, दही, पुष्प एवं अनजान फल आदि के बहुत ही गहराई से दोष बताकर इन्हें त्यागने को कहा है।
___ इस अध्याय में रात्रिभोजन त्याग, जलगालन व्रत, जुआ और वेश्यागमन आदि सात व्यसनों के दोषों का परिचय विस्तार से दिया है। श्रावकों को इन व्यसनों को त्यागने की मार्मिक शिक्षा दी है।
यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण अध्याय है। श्रावकों को एक बार इसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
चौथा अध्याय (64 श्लोक) चतुर्थ अध्याय में दूसरी व्रत प्रतिमा का स्वरूप बताया है। इसमें 64 श्लोक हैं।
पहली प्रतिमा के कर्तव्यों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए जो निःशल्य होकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का दोषों से रहित होकर पालन करता है, वह श्रावक दूसरी व्रत प्रतिमावाला कहलाता है। इस अध्याय में इन बारह व्रतों में से पाँच अणुव्रतों और इनके अतिचारों का विस्तार से वर्णन किया गया है। जिनका वर्णन हम पूर्व ग्रन्थों में कर चुके हैं। (देखें पृ. 112-113) पाँचवाँ अध्याय ( 55 श्लोक) पंचम अध्याय में तीन गुणव्रत, दिग्व्रत, अनर्थदण्ड व्रत और भोगोपभोगपरिमाण व्रत और चार शिक्षाव्रतों देशावकाशिक, सामयिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य का वर्णन और इनके अतिचारों का वर्णन है। इसकी श्लोक संख्या 55 है। इन व्रतों का परिचय हम पूर्व में कर चुके हैं। (देखें.पृ. 113-120)
छठा अध्याय (45 श्लोक) इस अध्याय में 45 श्लोकों में श्रावक की दिनचर्या बतलाई है। श्रावकाचार की दृष्टि से यह एक बिलकुल नवीन वस्तु है, किसी अन्य श्रावकाचार में यह नहीं मिलती। श्रावक की अपनी एक ऐसी दिनचर्या होना आवश्यक है, जिसमें वह अपना समय धर्म-ध्यानपूर्वक बिता सके और अपना गृहस्थाश्रम भी चला सके।
व्रती श्रावक को ब्रह्ममुहूर्त में उठते ही नमस्कार मन्त्र का जाप करने के पश्चात् 'मैं कौन हूँ, मेरा क्या धर्म है, मेरे व्रताचरण की क्या स्थिति है' इत्यादि विचार करना चाहिए। ऐसा करने से हम अपने आत्मिक कर्तव्य के प्रति भी 158 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय