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होता है। अभयदान से तीर्थंकर, चक्रवर्ती और देवों की विभूति क्षणमात्र में ही प्राप्त होती है तथा आपत्तियाँ दूर होती हैं।
4. दयादत्ति दान - जीविका के न होनेवाले दुखी और अपने आश्रित मनुष्यों और तिर्यंचों का दयाभाव से भरण-पोषण करना चाहिए।
श्रावक को दिन में ही भोजन करना चाहिए, रात्रि में सिर्फ जल, औषधि एवं पान आदि ले सकते हैं । यह कथन पाक्षिक श्रावक के लिए है।
पाक्षिक श्रावक को सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने के लिए तीर्थयात्रा आदि क्रिया करनी चाहिए तथा लोगों को अपने अनुकूल करने के लिए प्रेमपूर्वक भोजन आदि कराना चाहिए ।
श्रावकों को अपने वैराग्य को उत्तरोत्तर बढ़ाते हुए जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का पालन करते हुए क्रम से ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हुए मुनिपद धारण करके सल्लेखनापूर्वक मरण प्राप्त करना चाहिए ।
पं. आशाधरजी ने पात्रदत्ति दान के सम्बन्ध में मुनियों को दान देने के सम्बन्ध में जो बात कही है, वह बहुत ही सारगर्भित है । कृपया श्रावक गहराई से इस बात को समझें। आज के कुछ नवयुवक धर्म का परिहास करते हैं, उन्हें समझने के लिए यह अध्याय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।
तीसरा अध्याय (32 श्लोक )
तीसरे अध्याय में नैष्ठिक श्रावक का स्वरूप बताया है । इस अध्याय में 32 श्लोक हैं । इन श्लोकों में बताया गया है कि जो श्रावक दोषों से रहित होकर धर्म का पालन करता है, उसे नैष्ठिक श्रावक कहते हैं । नैष्ठिक श्रावक का वर्णन तीसरे अध्याय से सातवें अध्याय तक आता है ।
दर्शन आदि ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करनेवाला श्रावक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है ।
इस अध्याय में नैष्ठिक श्रावक के परिचय में ही छह लेश्याओं का वर्णन भी किया है।
आगे आशाधरजी पहली दर्शन प्रतिमा का परिचय देते हैं । उसके बाद दार्शनिक प्रतिमा के अतिचार बताते हुए वह कहते हैं कि श्रावक को मद्य, मांस, मधु और मक्खन का त्याग करने के बाद इसका व्यापार भी नहीं करना चाहिए, और न किसी से कराना चाहिए। जो व्यक्ति मद्य, मांस, मधु का सेवन करते हैं, उनके साथ खान-पान भी नहीं करना चाहिए । ऐसे स्थान पर भी नहीं जाना
धर्मामृत :: 157