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________________ ___पं. आशाधरजी ने दान देने की प्रेरणा भी दी है। दान के चार प्रकार बताए हैं-समदत्ति दान, पात्रदत्ति, अभयदान और दयादत्ति दान। 1. समदत्ति दान- विद्वानों और विविध शास्त्रों के ज्ञाताओं का सम्मान करना आवश्यक है। इनका आदर करना इन्हें दान देना समदत्तिदान है। कन्यादान को भी समदत्तिदान बताया है। साधर्मी को कन्या देना चाहिए, क्योंकि हजारों अजैनों से एक जैन का उपकार करना श्रेष्ठ है। यह वाक्य आशाधरजी के गम्भीर जिनधर्मप्रेम को बताता है। 2. पात्रदत्ति दान- दिगम्बर जैन धर्म का मुनिमार्ग अत्यन्त कठिन है। और इस काल में तो उसका पालन करना और भी कठिन है। तपस्वियों के आहारदान में ज्यादा सोच-विचार नहीं करना चाहिए। जो मुनिजन तप-ज्ञान आदि में विशिष्ट हों गृहस्थों को उनका अधिक समादर करना चाहिए। धन भाग्य से मिलता है। अतः भाग्यशाली पुरुषों को कोई मुनि आगमानुकूल मिले या न मिले, उन्हें अपना धन धार्मिकों में अवश्य खर्च करना चाहिए। जिन भगवान का यह धर्म अनेक प्रकार के मनुष्यों से भरा है। जैसे-मकान एक स्तम्भ पर नहीं ठहर सकता, वैसे ही धर्म भी एक पुरुष के आश्रय से नहीं ठहर सकता। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की अपेक्षा मुनि चार प्रकार के होते हैं और वे सभी दान-सम्मान के योग्य हैं। जैसे-पाषाण वगैरह में अंकित जिनेन्द्र भगवान की प्रतिकृति पूजने योग्य है, वैसे ही आजकल मुनियों को भी पूर्वकाल के मुनियों की प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए। पण्डित आशाधरजी ने वर्तमान मुनियों में पूर्व मुनियों की स्थापना करके उनको पूजने की प्रेरणा दी है। शुभ भाव पुण्य के लिए और अशुभ भाव पाप के लिए होता है, इसलिए मुनियों के प्रति भाव खराब न करें। कलिकाल में जिनशासन को धारण करनेवाले ये मुनि आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की तरह मान्य हैं। ___ मुनियों को भक्तिपूर्वक तप और ज्ञान में उपयोगी आहार, औषधि और पुस्तक (पीछी, कमण्डलु) आदि देना चाहिए। __जिस प्रकार गृहस्थ अपने वंश की परम्परा चलाने के लिए सन्तान उत्पन्न करता है और उसे गुणी बनाने का प्रयत्न करता है, उसी तरह लोकोपकारी जैन धर्म की परम्परा को चालू रखने के लिए नवीन मुनियों को उत्पन्न करने का और वर्तमान मुनियों को श्रुतज्ञान आदि से उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। 3. अभयदान- अभयदान सभी दानों में सर्वश्रेष्ठ है। जो अभयदान देता है उसे समस्त शास्त्रों के अध्ययन, उत्कृष्ट तप और सभी दान पुण्य का फल प्राप्त 156 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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