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________________ नैष्ठिक श्रावक : जो श्रावक धर्म का निष्ठापूर्वक निर्वाह करता है वह नैष्ठिक श्रावक है। साधक श्रावक : जो सल्लेखना धारण करता है वह साधक श्रावक है। दूसरा अध्याय ( 87 श्लोक) दूसरे अध्याय में 87 श्लोकों में पाक्षिक श्रावक के कर्तव्य बताए हैं। श्रावक को अहिंसा के पालन के लिए मद्य, मांस, मधु, पाँच उदुम्बर फल, मक्खन और रात्रिभोजन आदि का त्याग करना चाहिए। मद्य, मांस, मधु के सेवन से अत्यधिक हिंसा होती है। अत: इनका त्याग करना श्रावक का सर्वप्रथम कर्तव्य है। कई व्यक्ति मद्य, मांस का त्याग तो कर देते हैं, लेकिन मधु को औषधि के रूप में स्वीकार करते हैं, परन्तु मधु की एक बूंद को भी खानेवाले व्यक्ति को सात गाँवों को जलाने से जितना पाप होता है, उससे भी अधिक पाप का बन्ध होता है, अतः मधु (शहद) का त्याग भी करना ही चाहिए। धार्मिक पुरुष को मधु की तरह मक्खन को भी छोड़ना चाहिए, क्योंकि मक्खन में भी दो मुहूर्त के बाद बहुत से जीव समूह उत्पन्न होते रहते हैं। बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर के फल को खाने में त्रसजीवों की हिंसा होती है, अतः इनका त्याग करना चाहिए। रात्रिभोजन करने में भी हिंसा होती है, अतः अहिंसा के पालन के लिए रात्रिभोजन त्याग करना चाहिए। जैन का अर्थ है-रात में भोजन न करना, पानी छानकर पीना और प्रतिदिन देवदर्शन करना। पं. आशाधरजी ने आचार्यों के मत से श्रावक के लिए आठ मूलगुण बताए हैं-मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन त्याग, पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, जीवों पर दया और छना हुआ जल पीना तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति। इन आठ मूलगुणों का पालन गृहस्थ के लिए आवश्यक है, परन्तु इस समय बहुत-से श्रावक इनका पालन नहीं कर रहे हैं। उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए। ये जैन गृहस्थ के लिए बहुत उपयोगी हैं। पाक्षिक श्रावक को अपनी श्रद्धा और शक्ति के अनुसार जिनबिम्ब, जिनालय, स्वाध्यायशाला, भोजनशाला और औषधालय आदि बनवाना चाहिए या इनके बनने में सहयोग करना चाहिए। क्योंकि ये धर्म के साधन हैं। धार्मिक कार्यों में धन खर्च करने में मानसिक आनन्द मिलता है और पुण्यबन्ध भी होता है। पं. आशाधरजी ने जैन धर्म की दीक्षा का भी विस्तृत वर्णन इस अध्याय में किया है। जैन तथा अजैन दोनों को ही दीक्षा लेने के लिए आठ क्रियाएँ बताई हैं। धर्मामृत :: 155
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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