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अनादि है। अनादिकाल से जीव के साथ यह अज्ञानरूपी दोष लगा है। इस दोष के कारण ही मनुष्य आहार, भय, मैथुन और परिग्रह - इन चार संज्ञाओं से पीड़ित रहता है।
जिस प्रकार शरीर में जब वात, पित्त और कफ हो जाते हैं, तो उसे दोष कहते हैं। इस दोष के कारण ही मनुष्य बुखार से पीड़ित हो जाता है। वह सारे काम छोड़कर केवल बुखार के उपचार में लगा रहता है। उसी प्रकार जीव अनादि अविद्यारूपी दोष से उत्पन्न चार संज्ञाओं से पीड़ित है। सदा आत्मज्ञान से दूर रहता है और विषयों की पूर्ति में ही लगा रहता है, इसलिए उसे गृहस्थ या सागार कहते हैं। आगे गृहस्थ का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि न्यायपूर्वक धन कमाने वाला, गुणों से महान, गुरुजनों का आदर-सत्कार और पूजा करनेवाला, दूसरों की निन्दा न करनेवाला, मीठे वचन बोलनेवाला, धर्म-अर्थ और काम का सेवन करनेवाला, शास्त्रानुसार खानपान करनेवाला, दयालु और धर्मात्मा गृहस्थ धर्म का पालन करने में समर्थ होता है।
अविद्या का मूल कारण मिथ्यात्व है और विद्या का मूल कारण सम्यग्दर्शन है । इसलिए गृहस्थ को धर्म धारण करने के लिए सम्यग्दर्शन को अच्छे से जानना - समझना होगा । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों को गहराई से समझना होगा । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन दोषों से रहित होकर करना होगा । मरण समय विधिपूर्वक सल्लेखना धारण करना । यही पूर्ण श्रावक धर्म है।
जो गृहस्थ मूलगुण और उत्तरगुण में निष्ठा रखता है, अर्हन्त आदि पाँच परमेष्ठी की शरण में रहता है, दान और पूजा करता है और हमेशा ज्ञानरूपी अमृत पीना चाहता है, वह सच्चा श्रावक है ।
इस प्रकार इस अध्याय में श्रावक का लक्षण और धर्म बताकर उसे एकदेश संयम (ग्यारह प्रतिमा) पालन करने की शिक्षा दी है, यदि उसमें सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के बाद पूर्ण संयम धारण करने की शक्ति न हो ।
श्रावक के छह दैनिक कर्म बताकर इनका विस्तृत वर्णन किया है - 1. पूजा 2. दान 3. तप 4. संयम 5. स्वाध्याय 6. प्रायश्चित ।
आगे श्रावक के तीन प्रकार बताए हैं
पाक्षिक श्रावक : जो अभ्यास द्वारा श्रावक धर्म का पालन करता है, वह पाक्षिक श्रावक है।
154 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय