________________
वस्तु देनेवाली होती है ।
आगे आचार्य, साधु की नित्यविधि, नैमित्तिक विधि और क्रियाविधि बतलाई है।
देववन्दना करने के पश्चात् दो घड़ी कम मध्याह्न तक स्वाध्याय करना चाहिए। उसके बाद आहार के लिए जाना चाहिए। फिर प्रतिक्रमण करके मध्याह्न काल में स्वाध्याय करना चाहिए । जब दो घड़ी दिन शेष रहे तो स्वाध्याय का समापन करके प्रतिक्रमण करना चाहिए । फिर रात्रियोग ग्रहण करके आचार्य की वन्दना करनी चाहिए। आचार्यवन्दना के बाद देववन्दना करनी चाहिए । अर्धरात्रि से दो घड़ी (24 मिनट) पूर्व स्वाध्याय या देववन्दना करनी चाहिए।
आचारवत्त्व आदि आठ गुण, बारह तप, छह आवश्यक और दस कल्पआचार्य के छत्तीस गुण कहे हैं। इनका भी सुन्दर वर्णन इस अध्याय में किया है। अन्त में दीक्षा ग्रहण और केशलोंच आदि की विधि है ।
ग्रन्थ के अन्त में स्थितिभोजन, एकभक्त और भूमिशयन, स्नान न करने का समर्थन और केशलोंच आदि विषयों का वर्णन किया है । अन्त में साधु धर्म पालन करने का फल भी बताया है। जो मुनि अथवा उत्कृष्ट, मध्यम अथवा जघन्य श्रावक होकर आत्मिक धर्म साधना के साथ नित्य, नैमित्तिक क्रियाओं को भी शक्ति के अनुसार करता है, वह पुण्य कर्म के कारण इन्द्र और चक्रवर्ती के सुखों को भोगता है । वह सात-आठ भव में ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
सागर धर्मामृत
धर्मामृत का दूसरा भाग 'सागार धर्मामृत' है । अगार का अर्थ है घर । 'घर' में सभी परिग्रह होते हैं। अतः जो घर में रहते हैं, वे सागार कहे जाते हैं । अतः यह ग्रन्थ घर में रहनेवाले श्रावकों को धर्म का उपदेश देनेवाला है। सागार धर्मामृत में कुल आठ अध्याय हैं । इसमें श्रावक के धर्म का वर्णन किया गया है।
पहला अध्याय (20 श्लोक )
इस अध्याय का प्रारम्भ 'सागार' का अर्थ और लक्षण बताकर होता है। इस अध्याय में 20 श्लोक हैं। इसमें बताया है कि
जो जीव स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, शरीर और परिवार - इन सभी परवस्तुओं को अपना मानता है, वही अज्ञानी है । इस अज्ञान का कोई आदि नहीं है, इसलिए
धर्मामृत :
:: 153