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श्रावक के भेद बताकर एक-एक क्रियाओं को समझाया है।
11. धर्मामृत ग्रन्थ चरित्र - निर्माण और मनोविश्लेषण की दृष्टि से आज के माहौल में अधिक व्यावहारिक लगता है।
12. यह महाग्रन्थ सामाजिक और वैज्ञानिक ग्रन्थ है । इसके कारण इस ग्रन्थ पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी हैं।
13. जैन संस्कृति, शास्त्र का स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन और शोध के लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है।
ग्रन्थ का मुख्य विषय
अनगार धर्मामृत
पहला अध्याय ( 998 श्लोक )
प्रथम अध्याय में धर्म के स्वरूप का दर्शन है। इसमें 998 श्लोक हैं।
इस अध्याय में प्रारम्भ में धर्म के उपदेष्टा आचार्य का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि उन्हें 'तीर्थतत्त्वप्रणयननिपुण' होना आवश्यक है। तीर्थ का अर्थ ' अनेकान्त' और तत्त्व का अर्थ ' अध्यात्म रहस्य' किया है। अर्थात् आचार्य आगम और अध्यात्म के रहस्य को जानकर बोलनेवाले होना चाहिए ।
धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने सुख और दुख से निवृत्ति ये दो पुरुषार्थ बतलाए हैं। ये धर्म से ही प्राप्त होते हैं। आगे धर्म को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो पुरुष मुक्ति के लिए धर्माचरण करता है, उसको सांसारिक सुख
प्राप्त होता है और मोक्ष सुख भी प्राप्त होता है; परन्तु जो सांसारिक सुख की प्राप्ति की भावना से धर्म का आचरण करते हैं, उन्हें सांसारिक सुख की प्राप्ति भी नहीं होती है।
धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। ये तीनों एक साथ एक रूप हो जाते हैं, उसे ही शुद्धात्मपरिणाम कहते हैं । यथार्थ में यही धर्म है। ऐसे धर्म में जो अनुराग होता है, उससे पुण्यबन्ध होता है और जो धर्म में अनुराग नहीं रखते, उन्हें पापबन्ध होता है।
दूसरा अध्याय ( 114 श्लोक )
दूसरे अध्याय में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति बताई है। इसमें 114 श्लोक हैं। इस अध्याय में मिथ्यात्व के वर्णन के साथ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की प्रक्रिया तथा 150 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय