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वैश्य थे और मेवाड़ के निवासी थे । उन्होंने पण्डित महावीर से जैनेन्द्र व्याकरण और जैन न्याय पढ़ा था ।
रचनाएँ - इन्होंने करीब 20 ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें धर्मामृत, इष्टोपदेश टीका, धर्मामृत टीका और अमरकोश टीका मुख्य हैं।
ग्रन्थ का महत्त्व
1. इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि साधु और श्रावक दोनों के ही आचारों का वर्णन एक साथ एक ही ग्रन्थ में मिल जाता है जो अन्यत्र दुर्लभ है।
2. यह ग्रन्थ विशाल महासागर के समान है। इस ग्रन्थ में लगभग 2225 श्लोक तथा इसकी टीका में 25000 श्लोक की रचना है । इस प्रकार कुल लगभग 27,225 श्लोक की रचना है । इतने अधिक श्लोक होना वास्तव में इस ग्रन्थ की महत्ता है।
3. इस ग्रन्थ में छोटे-छोटे, सूक्ष्म-सूक्ष्म नियमों एवं आचारों को बहुत गहराई और सूक्ष्मता से समझाया है। इस ग्रन्थ में अनेक बातें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे
दया को चारित्र का मूल बताया है।
आचार्य को तीर्थ की उपमा दी है।
भोजन के छियालीस दोष बताए हैं।
जिनदेव की बहुत सुन्दर महिमा बताई है।
4. इस ग्रन्थ में आठ मूलगुण भिन्न प्रकार के बताए हैं। उनमें जीवों पर दया, छना हुआ जल तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति इन पर विशेष जोर दिया है। 5. जैन धर्म की दीक्षा विधि का बहुत सुन्दर वर्णन किया है।
6. दान का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। समदत्तिदान में कन्यादान का भी महत्त्व बताया है।
7. व्यसनों एवं अतिचारों के सूक्ष्म दोष बताकर उन्हें त्यागने की शिक्षा दी है। 8. मन्दिर जाते समय का, देव दर्शन एवं पूजन विधि का बहुत ही सरल एवं सुन्दर वर्णन किया है।
9. ग्यारह प्रतिमा और सल्लेखना के विषय को बहुत ही सरल तरीके से विस्तार से समझाया है।
10. इस ग्रन्थ में साधु और श्रावक दोनों के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक
धर्मामृत :: 149
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