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उसके भेद आदि का वर्णन है । प्रारम्भ में नौ पदार्थों का स्वरूप कहा है । फिर सम्यग्दर्शन के दोषों और उसके अंगों का वर्णन है । इसमें मिथ्यादृष्टियों के साथ संगति करने का निषेध किया है और जैन साधु रूपधारी भ्रष्ट मुनियों और भट्टारकों से दूर रहने के लिए कहा है 1
तीसरा अध्याय ( 24 श्लोक )
तीसरे अध्याय में बताया है कि ज्ञान की आराधना ही जीवन का सार है । इसमें ज्ञान के भेदों का वर्णन किया है। श्रुतज्ञान की आराधना को परम्परा से मुक्ति का कारण बताया है। इसमें 24 श्लोक हैं।
चौथा अध्याय (183 श्लोक )
चतुर्थ अध्याय में चारित्र की आराधना की है। इसमें एक सौ तिरासी (183) श्लोक हैं । इस अध्याय में व्रत का लक्षण और भेद, त्रस और स्थावर जीव का वर्णन, चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान और हिंसा का विस्तृत स्वरूप बताते हुए पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति और पाँच समिति का वर्णन किया है।
इस अध्याय में दया को चारित्र का मूल बताया है । जो दयालु व्यक्ति है, वह व्रतों से रहित है, तब भी उसे देवगति प्राप्त होती है। जबकि दया से रहित व्रती पुरुष को नरकगति की प्राप्ति होती है।
निर्दयी मनुष्य लम्बे समय तक तपस्या करे, खूब व्रत करे, दान दे, फिर भी वह दरिद्र ही रहता है। उसे व्रत -तपादि का फल प्राप्त नहीं होता है, उसे मुक्ति भी प्राप्त नहीं होती है। जबकि जो व्यक्ति दयालु है, व्रत और उपवास न करने पर भी उसे व्रत और उपवास का फल अवश्य प्राप्त हो जाती है।
आज के समय में जो प्राणी धर्म से दूर जा रहे हैं, उन्हें इस बात को अवश्य जानकर धर्म को समझना चाहिए । पण्डित आशाधरजी ने यह बहुत ही सारगर्भित एवं मार्मिक विचार बताए हैं, जो धर्म का मूल है।
पाँचवाँ अध्याय ( 69 श्लोक )
पाँचवें अध्याय में पिण्ड शुद्धि का वर्णन है। इसमें 69 श्लोक हैं । पिण्ड भोजन को कहते हैं। भोजन के छियालीस दोष हैं। सोलह उद्गम दोष हैं, सोलह उत्पादन दोष हैं, चौदह अन्य दोष हैं। इन सब दोषों से रहित शुद्ध भोजन ही साधु के द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है । इन्हीं दोषों का विस्तृत वर्णन इस अध्याय में है ।
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धर्मामृत :: 151