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________________ सच्चे देव, वीतरागी गुरु और अहिंसामयी धर्म का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन का कारण है। सम्यग्दर्शन का पालन सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के साथ किया जाता है और आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता, ऐसे 25 दोषों को त्यागकर निर्मलता से सम्यग्दर्शन का पालन करना चाहिए। इन 25 दोषों का विस्तृत वर्णन रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ में किया गया है। सम्यग्दर्शन ही मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है, इस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र प्राप्त नहीं हो सकते हैं। इसलिए सबसे पहले मनुष्य को इसे धारण करना चाहिए। मनुष्य जन्म और उत्तम कुल पाकर भी यदि सम्यग्दर्शन धारण नहीं किया तो हमने बड़ा भारी अवसर खो दिया समझना चाहिए, क्योंकि ऐसा उत्तम कुल और मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता है। सम्यग्दर्शन की ऐसी महिमा है कि इसको धारण करनेवाला मर कर भी उत्तम देव और मनुष्य ही होता है, तिर्यंचों, नपुंसकों और स्त्रियों में पैदा नहीं होता। पूर्वबन्ध के कारण यदि नरक भी जाता है, तो पहले नरक से नीचे नहीं जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव देवों के द्वारा पूजा जाता है। वह गृहस्थ में रहकर भी वैराग्य भाव से रहता है। ___ इसलिए स्वाध्याय द्वारा अथवा सत्संगति द्वारा सात तत्त्वों का स्वरूप जानकर सम्यग्दर्शन ग्रहण कर आत्मा को पवित्र करना चाहिए। चौथी ढाल सम्यग्दर्शन धारण करने के साथ सम्यग्ज्ञान को भी ग्रहण करना चाहिए। जिस प्रकार सूर्य का उदय होते ही अन्धकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान हो जाने पर अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है। सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के साथ होता है। सम्यग्दर्शन कारण है, सम्यग्ज्ञान कार्य है। सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं-1. परोक्ष ज्ञान, 2. प्रत्यक्ष ज्ञान। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थ को जानता हो, उसे परोक्ष ज्ञान कहते हैं। इन्द्रिय, प्रकाश और उपदेश आदि की सहायता के बिना जो ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए जैन शास्त्रों का अभ्यास करना, शास्त्र पढ़ना-पढ़ाना और शास्त्र को सुनना और सुनाना चाहिए। शास्त्र में दिए विषयों का बार-बार चितवन करना चाहिए। ज्ञान होने पर भव-भव के संचित पाप कट जाते हैं, जबकि अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों तक तप करता है, फिर भी उसके पाप नहीं 144 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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