SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समझकर इनका त्याग कर देना चाहिए। तभी चारों गतियों में भटकने और संसार के दुखों का नाश होगा। मिथ्यात्व को छोड़कर आत्मा की भलाई के मार्ग में लग जाना चाहिए। तीसरी ढाल आत्मा का हित सुख प्राप्त करने में हैं, वह सुख आकुलता से रहित होता है। आकुलता मोक्ष में नहीं होती है, इसलिए सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग में ही मन लगाना चाहिए। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-इन तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है। मोक्षमार्ग के दो प्रकार हैं 1. निश्चय मोक्षमार्ग- जो मोक्षमार्ग यथार्थ है, वह साक्षात् मोक्ष का कारण है, उसे निश्चय मोक्षमार्ग कहते हैं। 2. व्यवहार मोक्षमार्ग- जो निश्चय मोक्षमार्ग में कारण है, उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहते हैं। परिभाषा : सिर्फ अपनी आत्मा के स्वरूप में रुचि रखना निश्चय सम्यग्दर्शन है। अपनी आत्मा को जानना ही निश्चय सम्यग्ज्ञान है। आत्मस्वरूप में लीन हो जाना निश्चय ही सम्यक्चारित्र है। जीव आदि सात तत्त्वों का ठीक-ठीक श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सात तत्त्व जीव : जिसमें जानने-देखने की शक्ति हो, उसे जीव कहते हैं। जीव के तीन भेद हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। अजीव : जिसमें जानने-देखने की शक्ति न हो उसे अजीव कहते हैं। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाँच भेद हैं। आस्रव : आत्मा में कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। आस्रव के योग, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और प्रमाद-ये पाँच भेद हैं। बन्ध : आत्मा के परिणामों से कर्मों का बँधना बन्ध कहलाता है। संवर : कषायों को कम करना। इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त करने से नये कर्मों को रोकना संवर है। निर्जरा : तप की शक्ति से कर्मों का एकदेश झड़ जाना (नष्ट हो जाना) निर्जरा है। मोक्ष : आठों कर्मों से रहित, स्थिर, अटल और सुखदायक अवस्था मोक्ष है। छहढाला :: 143
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy