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________________ 6. ध्यान : एकाग्रचित्त होकर समस्त आरम्भ-परिग्रह से मुक्त होकर पंचपरमेष्ठी और आत्मा का ध्यान करना । छह आवश्यक मुनिराज को ये छह कार्य प्रतिदिन करने चाहिए 1. समता : समस्त जीवों पर समताभाव की साधना करना । 2. स्तवन : तीर्थंकर भगवान के गुणों का कीर्तन करना, स्तुति करना । 3. वन्दना : पंच परमेष्ठी को प्रत्यक्ष - परोक्षरूप से साष्टांग नमस्कार करना । 4. प्रतिक्रमण : अपने दोषों का पश्चात्ताप करना । 5. प्रत्याख्यान : जो रत्नत्रय में विघ्न उत्पन्न करनेवाले कार्य हैं, उन्हें मनवचन-काय से रोकना और उनका त्याग करना । 6. व्युत्सर्ग : शरीर का ममत्व छोड़कर विशेष प्रकार के आसन पूर्वक ध्यान करना । तीन गुप्तियाँ गुप्ति का अर्थ रोकना है । ये तीन हैं T 1. मनोगुप्ति : मन की चंचलता रोकना । 2. वचनगुप्ति : मौन धारण करना । 3. कायगुप्ति : शरीर की क्रिया रोकना, निश्चल होना । पाँच समितियाँ 1. ईर्या समिति : सावधानी से देखभाल कर गमन-आगमन करना। 2. भाषा समिति : हित, मित और असन्देहरूप वचन बोलना । 3. एषणा समिति : छियालीस दोष, बत्तीस अन्तराय टालकर श्रावक के घर आहार लेना । 4. आदाननिक्षेपण समिति : पुस्तक, पीछी और कमंडल आदि को सँभालकर उठाना, रखना । 5. प्रतिष्ठापना समिति : दृष्टि से देखकर, पीछी से पोंछकर मल, मूत्र, आदि को भूमि पर त्यागना । पुरुषार्थसिद्धयुपाय :: 135
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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