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5. सकलचारित्र अधिकार इस अध्याय में मुनियों के व्रत और चारित्र का वर्णन किया गया है। सम्यक्चारित्र में तप को विशेष स्थान दिया गया है। जैन सिद्धान्त में मोक्ष का कारण तप को कहा है। तप एक प्रकार का व्यवहार चारित्र है। तपश्चरण के बिना निश्चय सम्यक्चारित्र की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए मोक्ष के इच्छुक साधक को यथाशक्ति तप करना चाहिए। तप के दो प्रकार हैं-1. बहिरंग तप, 2. अन्तरंग तप।
बहिरंग तप
1. अनशन तप : उपवास करना (चारों प्रकार के आहार का पूर्ण त्याग __करना)। 2. अवमौदर्य तप : एकासन करना, भूख से कम खाना। 3. विविक्त शय्याशन : ऐसे एकान्त स्थान में रहना, जहाँ जीवों का आना
जाना न हो। वहाँ पर ध्यानाध्ययन और ब्रह्मचर्य का पालन होता है। 4. रसत्याग : दूध, दही, घी, शक्कर, तेल, इन पाँच रस रहित नमक और
हरी वस्तुओं का त्याग निर्धारित दिन के अनुसार करना। 5. कायक्लेश : शरीर को परिषह उत्पन्न होने पर (मच्छर, मक्खी आदि
द्वारा) पीड़ा सहन करना। 6. वृत्तिसंख्या : नियम लेकर भोजन करना।
अन्तरंग तप 1. विनय : विनय करना, पूज्य, सम्माननीय व्यक्तियों में आदरभाव रखना।
विनय के दर्शन, ज्ञान, चारित्र और उपचार-ये चार प्रकार हैं। 2. वैयावृत्य : गुरु आचार्य, उपाध्याय, साधु, त्यागीव्रती, श्रावक आदि की
सेवा करना, रोग हो जाने पर शुद्ध औषधि द्वारा उपचार कराना। 3. प्रायश्चित : प्रमाद से जो दोष लगा हो, उसको गुरु के सामने प्रगट कर गुरु
द्वारा दिए गये दंड को स्वीकार कर भविष्य में पुनः दोष न करने की प्रतिज्ञा
करना। 4. उत्सर्ग : शरीर में ममत्व (मोह) का त्याग करना, अंतरंग परिग्रह, क्रोध
आदि कषायों का त्याग करना। 5. स्वाध्याय : चारों अनुयोगों का श्रद्धान करना।
134 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय