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________________ अचौर्यव्रत प्रमाद-कषाय के योग से बिना दिए हुए स्वर्ण-वस्त्रादि परिग्रह ग्रहण करना चोरी है, और वही वध का कारण होने से हिंसा है। चोरी करने में हिंसा होती है। ब्रह्मचर्यव्रत स्त्री, पुरुष, नपुंसक से रागभाव के कारण मैथुन (कामसेवन) करना कुशील है। कुशील में हिंसा उत्पन होती है, कुशील करने और करानेवालों के सर्वत्र हिंसा ही होती है। कोई जीव मोह के कारण अपनी स्त्री को छोड़ने में समर्थ नहीं हो, तो उन्हें बाकी समस्त स्त्रियों का सेवन करने का त्याग करना चाहिए। परिग्रहपरिमाणवत मूर्छा ही परिग्रह है। मोह के उदय से उत्पन हुआ परिणाम ही मूर्छा है। परिग्रह के दो प्रकार हैं-अन्तरंग परिग्रह, बाह्य परिग्रह। दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग ही परिग्रह परिमाणवत है। इस प्रकार पाँचों पापों के त्याग सहित पाँच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) तथा रात्रिभोजन के त्याग करने के बाद गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन करना चाहिए। जिस प्रकार परकोटा नगर की रक्षा करता है, उसी प्रकार तीन गुणव्रत (दिक्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत) और चार शिक्षाव्रत (सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग, भोगोपभोगपरिमाण) अहिंसा आदि पाँच व्रतों की रक्षा करते हैं। इसका विस्तार से वर्णन हम 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में लिख चुके हैं। (देखें पृष्ठ 112-120 तक) 4. सल्लेखना अधिकार इस अधिकरण में सल्लेखना का वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है। सल्लेखना का वर्णन पूर्व में लिख चुके हैं, (देखें पृष्ठ 120-121) इस कारण हम यहाँ इसका विस्तृत वर्णन नहीं कर रहे, परन्तु जो श्रावक सल्लेखना को गहराई से जानना चाहते हैं, वे इस ग्रन्थ का अध्ययन अवश्य करें। सल्लेखना के साथ-साथ सम्यग्दर्शन, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों के पाँच-पाँच अतिचारों का भी वर्णन इस अध्याय में हुआ है। सल्लेखना के लिए इन अतिचारों को भी समझना आवश्यक है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय :: 133
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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