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चाहिए। यह भी हिंसा ही है ।
6. शिकारी, चिड़ीमार, बाज बहुत जीवों को मारनेवाले हैं, यदि ये पापी जीव जीते रहेंगे, तो बहुत पाप उत्पन्न करेंगे - ऐसा सोचकर इन जीवों को भी नहीं मारना चाहिए ।
7. ध्यान समाधि में लीन गुरुको उच्च पद प्राप्त हो जाएगा, ऐसी इच्छा करके गुरु को मारना भी हिंसा ही है ।
8. पिंजरे में कैद पक्षी को मुक्त करने की तरह आत्मा को भी शरीर से मुक्त कर देना चाहिए - ऐसा सोचकर शरीर नष्ट कर देना हिंसा ही है ।
रात्रिभोजन त्याग : रात में भोजन करनेवाले जीव को हिंसा अवश्य होती है, इसलिए हिंसा के त्यागियों को रात्रिभोजन का त्याग अवश्य ही करना चाहिए। रात्रिभोजन करने की अपेक्षा रात्रि में भोजन बनाने में बहुत अधिक हिंसा होती है। अहिंसाव्रत पालन करनेवाले को प्रथम ही इसका त्याग करना चाहिए। खासतौर से बाजार के बने हुए पदार्थों का तो बिलकुल ही त्याग करना चाहिए । रात्रिभोजन त्याग के बिना अहिंसाव्रत की सिद्धि नहीं होती, इसलिए इसे अहिंसाणुव्रत में लेते हैं ।
इस प्रकार हिंसा के सूक्ष्म रूप को जानकर सर्वप्रथम हिंसा का पूर्णरूप से त्याग करना चाहिए ।
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सत्यव्रत
सत्यवचन के अन्तर्गत निन्दनीय, पापयुक्त, अवद्य (झूठे ) और अप्रिय वचन सम्मिलित हैं।
निन्दनीय, हास्यजनक, कठोर, झूठे और शास्त्रविरुद्ध वचन हैं, वे सभी निन्दनीय वचन कहे गये हैं ।
छेदना, भेदना, मारना, शोषण करना, व्यापार या चोरी आदि के वचन पापयुक्त वचन हैं।
जो वचन अप्रिय हों, भय उत्पन्न करनेवाले, दुख देनेवाले, दुश्मनी और कलह करानेवाले, कलह कारक हों और अनेक प्रकार के दुख उत्पन्न करनेवाले हों, वे सभी वचन अप्रिय वचन हैं ।
इन सभी प्रकार के झूठे वचन बोलने में हिंसा अवश्य होती है। हिंसा प्रमाद से होती है। अतः जीवों को यथाशक्ति असत्य भाषण का त्याग करना चाहिए।
132 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय