SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मांस भक्षण के दोष प्राणियों का घात किए बिना मांस की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, इसलिए मांस खानेवाले पुरुष को अनिवार्यरूप से हिंसा होती है। मरे हुए जीवों में भी अनेक प्रकार के निगोदिया जीव रहते हैं, अत: मांस का भक्षण और मांस को हाथ वगैरह से स्पर्श कर दूसरा शुद्ध भोजन भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहाँ मांस हो वहाँ भी भोजन नहीं करना चाहिए। मधुसेवन के दोष मधु अर्थात् शहद की एक बूंद के सेवन में असंख्य मधुमक्खियों की हिंसा होती है, इसलिए जो मूर्ख मनुष्य शहद का भक्षण करता है, वह अत्यन्त हिंसा करनेवाला होता है। मधु, मद्य, मांस, मक्खन-इन चार पदार्थों का भक्षण कभी नहीं करना चाहिए। ऊमर, कठूमर, पाकर (अंजीर), बड़ के फल और पीपल वृक्ष के फल त्रस जीवों की खान हैं। इनके भक्षण में त्रस जीवों की हिंसा होती है। इसलिए इनका भी त्याग करना चाहिए। हिंसा का त्याग दो प्रकार से होता है। एक तो सर्वथा त्याग है, वह मुनिधर्म में होता है। किन्तु यदि सर्वथा त्याग न बन सके, तो त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करके श्रावक धर्म ग्रहण करना चाहिए। मिथ्यादृष्टि अनेक युक्तियों से हिंसा में धर्म बताते हैं, इनसे श्रावकों को सावधान रहना चाहिए। यथा 1. यज्ञादि में धर्म के निमित्त से हिंसा करने में कोई दोष नहीं है-यह सोचकर हिंसा नहीं करना चाहिए। 2. देव, देवी, क्षेत्रपाल, काली, चंडी, चामुंडी इत्यादि के लिए हिंसा करना, इसका भी निषेध करना चाहिए। ___3. अपने गुरु (बॉस) के लिए भी बकरा, मुर्गा आदि किसी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिए। ____4. अन्न के आहार में तो बहुत जीव मरते हैं, इसलिए एक बड़ा जीव मारकर भोजन करना, ऐसा सोचना भी हिंसा ही है। ___5. दूसरे जीवों को काटनेवाले, मारनेवाले जीव सर्प, बिच्छू, सिंह, मच्छर इत्यादि हिंसक जीवों को मार डालने से बहुत से जीव बच जाते हैं, इसलिए इन्हें मारने में पाप नहीं है-ऐसा जानकर उन हिंसक जीवों का घात नहीं करना पुरुषार्थसिद्धयुपाय :: 131
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy