SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थ का मुख्य विषय पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें 226 पद्य और पाँच अधिकार हैं । यह ग्रन्थ आर्या छन्द में लिखा गया है। प्रारम्भ के आठ पद्यों में ग्रन्थ की उत्थानिका (प्रस्तावना) दी गयी है। इस उत्थानिका में निश्चय नय और व्यवहार नय का स्वरूप एवं पुरुषार्थसिद्धयुपाय का अर्थ बताया है। निश्चय नय को भूतार्थ (सत्य) और व्यवहार नय को अभूतार्थ (असत्य) कहा है। ____ भूतार्थ अर्थात् भूत 'जो पदार्थ में पाया जावे' और अर्थ अर्थात् 'भाव'। पदार्थ में पाए जानेवाले भाव को जो प्रकाशित करे, उसे भूतार्थ कहते हैं। जैसेसत्यवादी सत्य ही कहता है, कल्पना करके कुछ भी नहीं कहता। निश्चय नय आत्मा को शरीर से अलग मानता है, इसलिए निश्चय नय सत्यार्थ है। अभूतार्थ नाम असत्यार्थ का है। अभूत अर्थात् जो पदार्थ में न पाया जावे और अर्थ अर्थात् भाव। जो अनेक प्रकार की कल्पना करके पदार्थ को प्रकाशित करे, उसे अभूतार्थ कहते हैं अर्थात् असत्य को सत्य सिद्ध करना। व्यवहार नय असत्यार्थ है। जो शिष्य निश्चयनय और व्यवहारनय के पक्षपात से रहित होता है, वही उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है। उत्तम श्रोता का लक्षण यही है कि पहले व्यवहार निश्चय को भली प्रकार जानना चाहिए, फिर उसको यथायोग्य ग्रहण करना चाहिए, पक्षपात नहीं करना चाहिए। 1. सम्यग्दर्शन अधिकार पुरुष अर्थात् आत्मा चेतना युक्त है, ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है, अमूर्तिक है और स्पर्श, गन्ध, रस, वर्ण से रहित है। यदि आत्मा देव, गुरु धर्म आदि के प्रति शुभ भाव करता है तो शुभकर्म का बन्ध होता है, और उसके विपरीत अशुभ राग-द्वेष-मोह भाव करता है तो अशुभ कर्म का बन्ध होता है। ___ जो श्रावक मुनिधर्म का पालन नहीं कर सकते हैं, उनके लिए श्रावकधर्म का वर्णन किया गया है। 126 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy