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________________ 1 सर्वप्रथम श्रावक को अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र इन तीनों का पालन करना चाहिए, क्योंकि यही मोक्ष का मार्ग है इसमें भी सर्वप्रथम पूर्ण सावधानी से सम्यग्दर्शन को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसके बिना ज्ञान प्राप्त करने पर भी वह अज्ञानी ही कहलाता है। जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों का सच्चा श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन की शोभा जब होती है, तब जीव सम्यग्दर्शन के आठ अंगों (निःशंकित आदि) का पालन करता है । सम्यक्त्व के साथ जो ज्ञान होता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान के साथ जो आचरण होता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं । जिस प्रकार अंकरहित शून्य किसी भी कार्य में साधक नहीं होता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान और चारित्र भी किसी भी कार्य में साधक नहीं होते हैं । 2. सम्यग्ज्ञान अधिकार सम्यग्ज्ञान का अर्थ है सही ज्ञान अर्थात् जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही जानना सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान प्राप्त होने पर तीन दोष नहीं होते हैं— 1. संशय: दो तरफा ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे- रात में किसी वस्तु को देखकर सन्देह करना कि ये रस्सी है या साँप है - ऐसे सन्देह युक्त ज्ञान को संशय कहते हैं । 2. विपर्यय: विपरीत रूप एकतरफा ज्ञान को विपर्यय कहते हैं । जैसे रस्सी है और उसे साँप समझ लेना । इस विपरीत रूप को ज्ञान विपर्यय कहते हैं । 3. अनध्यवसाय (विमोह ) : 'कुछ है ' बस इतना ही जानकर उसकी खोज न करना विमोह ( अनध्यवसाय) है । जैसे - 1. रस्सी हो या साँप हो, मुझे क्या करना । 2. हम आत्मा हैं या शरीर हैं, कुछ निर्णय न करना विमोह (अनध्यवसाय) है। जिस ज्ञान में ये संशय, विपर्यय, विमोह दोष नहीं होते वह सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञान को हम इन आठ अंगों के द्वारा अच्छी तरह से जान सकते हैं। 1. शब्दाचार : पहला अंग है शब्दाचार अर्थात् शुद्ध बोलना, शुद्ध लिखना । इसका अर्थ होता है, आप जो भी पढ़ें- लिखें, शुद्ध पढ़ें, शुद्ध लिखें। आज इस अंग की बहुत आवश्यकता है, क्योंकि लोग ज्ञान की सामग्री को छपाने पर तो पुरुषार्थसिद्धयुपाय :: 127
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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