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प्रतिमा' को धारण करनेवाला होता है।
2. जो श्रावक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है, बारह व्रतों में कोई दोष नहीं लगाता, वह 'व्रत प्रतिमा' को धारण करनेवाला होता है।
3. प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में, आरम्भ - परिग्रह से रहित होकर एक किसी भी आसन में, सामायिक करनेवाले श्रावक को 'सामायिक प्रतिमा' होती है।
4. प्रत्येक माह के चारों पर्व दिनों में (प्रत्येक अष्टमी - चर्तुदशी को ) जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार शुभ ध्यान में लीन होकर प्रोषधोपवास करता है, वह 'प्रोषधोपवास' नामक चतुर्थ प्रतिमा का धारक होता है।
5. जो दयालु श्रावक कन्दमूल, फल और सब्जी, इनको कच्चे नहीं खाता, वह ' सचित्तविरत' पद नामक पाँचवीं प्रतिमा का धारक होता है ।
6. जो श्रावक रात्रि के समय चार प्रकार के (अन्न, पान, खाद्य और लेह्य) भोज्य पदार्थों का त्याग करता है, वह श्रावक 'रात्रिभुक्तिविरक्त' नामक छठी प्रतिमा का धारक होता है।
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7. जो श्रावक शरीर को अशुद्ध मानता हुआ कामभाव से विरक्त हो जाता है, वह श्रावक 'ब्रह्मचर्य' नामक सप्तम प्रतिमा का धारक होता है ।
8. जो हिंसा के कारण है, ऐसे व्यापार आदि आरम्भों का त्याग करनेवाला श्रावक 'आरम्भत्याग' नामक अष्टम प्रतिमा का धारी होता है ।
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9. जो श्रावक दश प्रकार के बाह्य परिग्रह को छोड़कर आत्मा में लीन रहता है, सन्तोष धारण करता है, वह 'परिग्रह - विरत' नामक नवम प्रतिमा का धारक होता है।
10. जो श्रावक, निश्चय से आरम्भ - परिग्रह में, लौकिक कार्यों में अनुमति नहीं देता है, वह श्रावक 'अनुमति - विरत' नामक दशम प्रतिमा का धारक होता है।
11. जो श्रावक समस्त परिग्रह का त्याग करके मन्दिर में जाकर या गुरु के समीप व्रतों को ग्रहण करता है, शुद्ध भोजन और तपस्या करता है, श्वेत वस्त्र पहनता है, वह श्रावक 'उद्दिष्ट त्याग' ग्यारहवीं प्रतिमा व्रत का पालन करता है। इन ग्यारह प्रतिमाओं को श्रावक अपनी शक्ति - अनुसार ग्रहण कर सकते
हैं।
जो पुरुष कलंक और अतिचारों से दूर रहकर अपनी आत्मा को निर्मल करता है, वह सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूप 'रत्नों का पिटारा' प्राप्त कर लेता है।
122 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय