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संयम और प्राणिसंयम का पूरा पालन करना चाहिए। शुभ भावनाओं के लिए अशुभ भाव, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों और आर्त्त-रौद्र नाम के खोटे ध्यानों का परित्याग करना ही सामायिक है। इसलिए सामायिक करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
• दूसरी विशेष बात यह है कि जो श्रावक मौनपूर्वक सामायिक में स्थित हो जाता है, समस्त उपसर्गों और परीषहों को समता भाव से सहन करता है, उस श्रावक को आचार्य मुनि की उपमा देते हैं। कितनी बड़ी बात है कि वस्त्रों का उपसर्ग होते हुए भी उस श्रावक को मुनि जैसा बताया है, क्योंकि वह समस्त आरम्भ-परिग्रह रहित और परीषहों को सहते हुए अपनी अन्तरात्मा में लीन हो जाता है। सामायिक व्रत के अतिचार
1. सामायिक के समय वचनों द्वारा संसार सम्बन्धी कार्य करना। 2. शरीर को हिलाना, डुलाना और असंयमित करना। 3. मन में आर्त्त-रौद्र आदि भावनाओं को बारे में सोचना। 4. सामायिक को उत्साह रहित होकर निरादर भाव से करना। 5. सामायिक में देव वन्दन और कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं को भूल जाना।
सामायिक करते समय यदि बिच्छु और साँप भी आ जाए तो, न कुछ बोलना, न हिलना-डुलना, उस जीव के प्रति द्वेष की भावना भी नहीं लाना चाहिए, जल्दी-जल्दी सामायिक पूरी करके कुछ क्रियाओं को छोड़कर भी नहीं उठना चाहिए। तभी सही सामायिक मानी जाती है।
ग. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत प्रोषध के दिन अर्थात् दो अष्टमी दो चतुर्दशी के दिनों में चार प्रकार के आहारों (अन्न, पान, खाद्य और लेह्य) का सम्यक् इच्छापूर्वक दृढ़ता के साथ पूर्ण रूप से त्याग करना प्रोषधोपवास व्रत है। प्रायः देखा जाता है कि आजकल श्रावक उपवास अपनी-अपनी इच्छा अनुसार कर रहे हैं, पर वास्तव में उपवास किस प्रकार करना चाहिए, यह सरल तरीके से समझा रहे हैं कि
1. उपवास के दिन हिंसादि पाँच पापों का पूर्ण त्याग करना चाहिए। शरीर के साज, शृंगार, अतिरिक्त गहने, महँगे वस्त्राभूषण, इत्र, चन्दन, साबुन, शैम्पू, तेल, काजल और दवाई आदि का त्याग करना चाहिए, क्योंकि उपवास धार्मिक
118 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय