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________________ देशावकाशिक व्रत के अतिचार 1. मर्यादा के बाहर व्यापारादि के लिए किसी व्यक्ति को पत्र या सन्देश भेजना। 2. मर्यादा के बाहर के 3. सीमा के बाहर के क्षेत्र से व्यक्ति, पत्र या सन्देश मँगाना। 4. मर्यादा के बाहर के लोगों को अपनी बात इशारों द्वारा समझाना | 5. वस्तुओं द्वारा अपनी उपस्थिति का ज्ञान कराना । ख. सामायिक शिक्षाव्रत समय अर्थात् काल, आचार, सिद्धान्त आदि शब्द होते हैं । यहाँ पर 'समय' का अर्थ आत्मा से लिया है। आत्मा में एकाग्र होना ही सच्चा सामयिक या सामायिक है। सामायिक व्रत का बहुत सुन्दर वर्णन इस ग्रन्थ में किया है । सामायिक कब, कैसे और कितनी देर करना चाहिए। सारी बातें आचार्य बहुत सरल तरीके से सुन्दर शब्दों में समझाते हुए कहते हैं कि 1. सबसे पहले समस्त आरम्भ और परिग्रह से रहित होना चाहिए। उसके बाद हिंसा आदि पाँच पापों का त्याग मन, वचन और काय से करना चाहिए । 2. एकान्त स्थानों में (घर, मन्दिर, वन और गुफादि) प्रसन्नचित्त होकर मन स्थिर करके सामायिक करना चाहिए। सभी कार्यों से, समस्त आरम्भपरिग्रह से छूटकर सामायिक करना चाहिए । 3. सामायिक में दृढ़ता लाने के लिए उपवास या एकाशन के साथ सामायिक करना चाहिए। व्यापार आदि सर्व कार्यों से मुक्त होकर सामायिक करना चाहिए । 4. गृहस्थ श्रावक को आलस से रहित होकर एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन सामायिक करना चाहिए। 5. सामायिक करते समय जो भी उपसर्ग तथा परीषह (सर्दी-गर्मी, डांस, मच्छर) आते हैं, उन्हें समता भाव से सहन करना चाहिए। 6. सामायिक करने से पाँचों व्रत दृढ़ होते हैं। मन की एकाग्रता बढ़ती है। 7. सामायिक में स्थित होकर श्रावक बारह भावनाओं का चिन्तवन करता रहता है। क्षेत्र के लोगों से बात करना या कार्य करवाना। यहाँ बहुत सुन्दर बातें बताई हैं जैसे सबसे पहले यह कहा है कि मात्र बाहरी जाप या प्रतिक्रमण करना सामायिक नहीं है । सामायिक के समय किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं रखना, इन्द्रिय रत्नकरण्ड श्रावकाचार :: 117 •
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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