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है तब भी उसे नरकगति और तिर्यंचगति प्राप्त नहीं होती है। वह कभी नपुंसक
और विकृत अंगवाला भी नहीं होता। वह स्त्री पर्याय और नीचकुल में भी जन्म नहीं लेता। अल्पायु और दरिद्रता भी उसे प्राप्त नहीं होती है।
5. सम्यग्दर्शन से जिनकी आत्मा पवित्र होती है, वे जीव मानव-तिलक और पुरुषशिरोमणि बन जाते हैं। वह बहुत ही ओजस्वी, तपस्वी, विद्यावान, बुद्धिवान, बलवान, यशस्वी और धनवान बन जाते हैं। वे सदा उच्च कुल में जन्म लेते हैं, और सुख, समृद्धि, वैभव, ऐश्वर्य से सम्पन्न होते हैं। ____7. सम्यग्दृष्टि जीव यदि मरकर देव पर्याय को प्राप्त होते हैं, तो भी वे भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिष्क देवों में जन्म नहीं लेते, केवल स्वर्ग में उच्च जाति के देव (वैमानिक) ही होते हैं। सम्यग्दर्शन की यह बहुत बड़ी महिमा
8. सम्यग्दर्शन होने के बाद जीव की सबसे बड़ी विशिष्ट अवस्था यह होती है कि जीव चक्रवर्ती, कामदेव, तीर्थंकर, नारायण और बलभद्र आदि विशेष उच्चपद प्राप्त करता है। लोक में सर्वश्रेष्ठ उच्च पद तीर्थंकर पद प्राप्त करने के बाद जीव शिवपद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन की विशिष्ट महिमा बताई है। यदि जीव सम्यग्दर्शन को धारण कर लेता है, तो वह अवश्य ही संसार समुद्र को पार कर मोक्ष महल को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन कल्याण करनेवाला और मोक्ष देनेवाला है।
2. सम्यग्ज्ञान अधिकार परिभाषा : सम्यग्ज्ञान वह है जो वस्तु के स्वरूप को परिपूर्ण अर्थात् अच्छी तरह से जानता है। वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को कभी कम या कभी अधिक नहीं जानता।
सम्यग्ज्ञान को हम इन चार अनुयोगों द्वारा जान सकते हैं।
1. प्रथमानुयोग- प्रथमानुयोग में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थों का वर्णन होता है। पुराण, महापुराण आदि चरित्र ग्रन्थों को प्रथमानुयोग कहा जाता है। चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और तीर्थंकरों के चरित्र का वर्णन प्रथमानुयोग में किया जाता है। जैसे-आदिपुराण, हरिवंश पुराण और पद्मपुराण
आदि।
2. करणानुयोग- करणानुयोग के ग्रन्थों में छह काल, काल-परिवर्तन
रत्नकरण्ड श्रावकाचार :: 111