SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और सुन्दर शरीर इन आठ का मद नहीं करना चाहिए। सम्यग्दृष्टि जीव इन आठ चीजों के होने पर भी घमण्ड नहीं करता है । वह सदा इन आठ मदों से दूर रहता है। छह अनायतन सम्यग्दृष्टि जीव कुगुरु, कुदेव और कुधर्म को नहीं मानता है, और न ही इन तीनों को माननेवालों की सेवा करता है। आठ दोष सम्यग्दर्शन के आठ गुणों के विपरीत आचरण करना आठ दोष हैं। निर्दोष सम्यग्दर्शन का पालन करनेवाला श्रावक इन दोषों का त्याग कर देता है । वह सिर्फ सम्यग्दर्शन के आठ अंगों को ही धारण करता है । जो श्रावक सम्यग्दर्शन को धारण कर लेता है, उसे समस्त लौकिक वैभव स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं, परन्तु वह लौकिक वैभव की इच्छा नहीं करता है । सम्यग्दर्शन की महिमा इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन की अपरम्पार महिमा बताई गयी है। यूँ तो इसकी महिमा अवर्णनीय है, परन्तु संक्षेप में सम्यग्दर्शन की महिमा के महत्त्वपूर्ण बिन्दु यहाँ हम आपको बताते हैं, क्योंकि यह बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। 1. जिस प्रकार बीज के बिना किसी वृक्ष की उत्पत्ति नहीं होती है, उसमें फल, फूल, और पत्ते भी नहीं आ सकते है; उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । रत्नत्रय में वृद्धि और मोक्ष प्राप्ति सम्यग्दर्शन के बिना नहीं हो सकती । अतः ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन अधिक श्रेष्ठ है। 2. जैन दर्शन में गृहत्यागी मुनि का स्थान गृहस्थ से अधिक ऊँचा होता है । परन्तु जो गृहस्थ सम्यग्दर्शन धारण करता है, उनका स्थान उन गृहत्यागी मुनिराज के ऊपर होता है, जो सम्यग्दर्शन से सम्पन्न नहीं होते हैं । अर्थात् मोही मुनि से निर्मोही गृहस्थ ज्यादा श्रेष्ठ होता है । 3. तीनों कालों और तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन ही कल्याण करनेवाला होता है। सभी जीवों का हित सम्यग्दर्शन के कारण ही होता है। 4. सम्यग्दर्शन के प्रभाव से जीव यदि सभी व्रतों का पालन नहीं भी करता 110 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy