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9. सल्लेखना विषय के ऊपर जितनी सुन्दर, गम्भीर, गहरी और सरल बात इस ग्रन्थ में आई है वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। यही कारण है कि जहाँ पर भी सल्लेखना विषय पर गोष्ठियाँ, चर्चा और सेमिनार आयोजित होते हैं, सभी विद्वान इस ग्रन्थ का वर्णन अवश्य करते हैं । यदि उस समय रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ का उल्लेख नहीं हो तो लेख, शोधपत्र आदि अपूर्ण माने जाते हैं। 10. यह ग्रन्थ रत्नों का पिटारा है । जैसे - एक पेटी में रत्न होने से वह अमूल्य हो जाती है। वैसे ही यह ग्रन्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप तीन रत्नों से सुशोभित होने के कारण जैन दर्शन में अतुलनीय एवं अमूल्य है। 11. प्रायः देखा जाता है कि सबसे पहले जो काम किया जाता है, वह ज्यादा अच्छा नहीं हो पाता। बाद में उसमें सुधार और संशोधन किया जाता है। परन्तु यह ग्रन्थ इस बात का अपवाद है। श्रावकाचार सम्बन्धी यह सबसे पहला ग्रन्थ है, फिर भी यह महान, बेजोड़ एवं अनूठा ग्रन्थ है । आज भी इसके जैसा श्रावकाचार सम्बन्धी दूसरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है ।
12. इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें हर महत्त्वपूर्ण बिन्दु को कथा एवं कहानी के द्वारा समझाया गया है, जिससे यह श्रावकों के लिए रुचिकर एवं सरल हो जाता है । सम्यग्दर्शन के आठ अंग, पाँच अणुव्रत आदि को सरल कथाओं के द्वारा समझाया गया है।
13. अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत का महत्त्व बताकर इन व्रतों के पालन में कौन-कौन जीव प्रसिद्ध हुआ है, उसको पुण्य का फल कैसे प्राप्त होता है, ये सब बातें इसमें बतलाई गयी हैं। साथ-साथ इन व्रतों के पाँच-पाँच अतिचारों का वर्णन भी किया है। व्रतों में दोष लगाने से क्या गति प्राप्त होती है। कुछ कथाओं के द्वारा यह भी समझाया गया है।
14. चरणानुयोग का यह बहुत सुन्दर एवं प्रामाणिक ग्रन्थ है ।
संक्षेप में हम इतना ही कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ रत्नों का करण्ड (पिटारा ) है । जो भी श्रावक इसका स्वाध्याय करके इसके रत्नों को जीवन में स्वीकार करके आत्मसात करेगा उसे अवश्य संसार के सुख-वैभव के साथ 'मोक्ष' की भी प्राप्ति होगी ।
ग्रन्थ का मुख्य विषय
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मुख्यतः 3 अधिकार हैं । गौण रूप से किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने 5 या 7 अधिकार भी किए हैं। सम्पूर्ण सात अधिकार कुल मिलाकर 150 श्लोकों में निबद्ध हैं ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार :: 107