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________________ मंगलाचरण सबसे पहले आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने मंगलाचरण में वीतराग एवं सर्वज्ञ श्री वर्धमान स्वामी को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया है। उसके बाद उन्होंने धर्म की परिभाषा देते हुए कहा है कि 'जो जीवों को दुखों से उठाकर सुख में रख दे, वह समीचीन धर्म है । ' इस प्रकार आचार्य ने सरल शब्दों में यही लिखा कि जो जीवों को उत्तम सुख में स्थापित करे, वह ' समीचीन' धर्म है । धर्म की यह परिभाषा बहुत प्रसिद्ध है। सभी जगह यह परिभाषा समझाई है। बहुत से ग्रन्थों में इस परिभाषा का उल्लेख किया जाता है। 1 समन्तभद्र स्वामी व्यक्ति पर नहीं, विषय पर महत्त्व देते थे । यह उनके क्रान्तिकारी विचार थे । आचार्य आगे कहते हैं कि वह समीचीन धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र—इन तीनों की एकता से होता है। 1. सम्यग्दर्शन अधिकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही धर्म है । इन तीनों के विपरीत जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र हैं, वे तीनों संसार में भटकाने के कारण हैं। परिभाषा : 'सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का सच्चा श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है । ' सच्चा देव वह होता है, जो सर्वज्ञ हो, हितोपदेशी हो और अठारह दोषों से रहित हो। वह धर्म की शिक्षा और उपदेश देनेवाला होता है । सच्चा आगम (शास्त्र) वह होता है, जो सर्वज्ञ वीतराग भगवान द्वारा कहे गये यथार्थ वस्तु स्वरूप का उपदेश देता है । वह आगम सभी प्रकार के विरोध से रहित होता है। सार्वजनिक होता है। सच्चा गुरु वह होता है, जो समस्त आरम्भ और परिग्रह से रहित होता है, पाँचों इन्द्रियों के विषयों से दूर रहता है और सदा ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहता है। इस प्रकार जो इन सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का श्रद्धान करता है, सम्यग्दर्शन के आठ अंगों को धारण करता है और 25 दोषों से दूर रहता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। 108 :: प्रमुख जैन ग्रन्थों का परिचय
SR No.023269
Book TitlePramukh Jain Grantho Ka Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2017
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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