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इस प्रसंग को उक्त रूप में न आलोकित कर अपना मौन-भाव ही प्रकट किया हो।'
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आचार्य जिनेश्वर सूरि तथा सूराचार्य आदि चैत्यवासियों के मध्य अहिलपुर पत्तन में राजा दुर्लभ की अध्यक्षता में शास्त्रार्थ हुआ था। शास्त्रार्थ-विजय कर जिनेश्वरसूरि ने खरतर विरुद प्राप्त किया था। अतः वे खरतरगच्छ के प्रथम आचार्य/आदि प्रवर्तक हुए। इन्हीं जिनेश्वरसूरि की परम्परा में हुए मुनियों ने चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन अनवरत चालू रखा, जो तेरहवीं शताब्दी तक चलता रहा। इस अवधि में अनेक ऐतिहासिक पुरुष एवं घटनाएँ हुई, जिनसे सुविहित मार्ग विधि पक्ष रूप खरतरगच्छ का अभ्युत्थान हुआ। जिनेश्वरसूरि ने आन्दोलन को शुरू किया था, उसे अमयदेव, देवभद्र, वर्धमान, जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनपति आदि आचार्यों ने पूरा करने का प्रयास किया और उन्हें अपरिमित सफलता प्राप्त हुई। मुनि जिनविजय का अभिवचन है कि इस प्रसंग से जिनेश्वरसूरि की केवल अणहिलपुर में ही नहीं, अपितु सारे गुजरात में और उसके आस-पास के मारवाड़, मेवाड़, मालवा, बागड, सिंध और दिल्ली तक के प्रदेशों में खूब ख्याति और प्रतिष्ठा बढ़ी। जगह-जगह सैकड़ों श्रावक उनके भक्त और अनुयायी बन गये। अजैन गृहस्थ भी उनके भक्त बनकर नये श्रावक बने। अनेक प्रभावशाली और प्रतिभाशाली व्यक्तियों ने उनके पास यति मुनि दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त किया। उनकी शिष्यसंतति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाखा-प्रशाखाओं में फैली । उसमें बड़े-बड़े विद्वान, क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य उपाध्यायादि समर्थ साधु पुरुष हुए। चरितादि के रचयिता वर्धमान सूरि, पार्श्वनाथ चरित
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ओसवाल वंश, पृष्ठ ३३-१४
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