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गरिमा के विरुद्ध था। साथ ही जिस ग्रन्थ में सभी प्रभावक चरितकारों का गुण-वर्णन हो, उसमें सूराचार्य को शास्त्र-पराजित बताना उनकी 'प्रभावकता को कलंकित करने जैसा था। अतः प्रभाचन्द्रसूरि ने इस शास्त्रार्थ-प्रसंग को ग्रन्थ में सम्मिलित करना अनुपयुक्त समझा होगा। हाँ! यदि प्रमाचन्द्र यह लिखते हैं कि जिनेश्वराचार्य एवं सूराचार्य के मध्य कोई शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं, तब तो यह तथ्य विचारणीय हो जाता । जबकि प्रभावक चरित, जिसकी रचना सं० १३३४ में हुई थी, से पहले जिनदत्तसूरि, सुमतिगणि, उपाध्याय जिनपाल आदि ने इस शास्त्रार्थ-प्रसंग का स्पष्ट वर्णन किया है ।
सं० १३०५ में रचित युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में खरतरगच्छ का उद्भव एवं उसकी परम्परा आचार्य वर्धमानसूरि एवं आचार्य जिनेश्वरसूरि से स्पष्टतः सम्बन्ध जोड़ा है।
मुनि जिनविजय ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि "प्रभावक चरित्र के वर्णन से यह तो निश्चित ही ज्ञात होता है कि सूराचार्य उस समय चैत्यवासियों के प्रसिद्ध और प्रभावशाली अग्रणी थे। वे पंचाक्षर पार्श्वनाथ चैत्य के मुख्य अधिष्ठाता थे। स्वभाव से वे बड़े उग्र
और वाद-विवाद-प्रिय थे। अतः उनका वाद-विवाद में अग्र रूप से भाग लेना असम्भव नहीं, परन्तु प्रासंगिक ही मालूम देता है। शास्त्रकार की दृष्टि से यह तो निश्चित ही है कि जिनेश्वराचार्य का पक्ष सर्वदा सत्यमय था। अतः उनके विपक्ष का उसमें निरुत्तर होना स्वाभाविक ही था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि राजसभा में चैत्यवासी पक्ष निरुत्तरित होकर जिनेश्वर का पथ राज सम्मानित हुआ और इस प्रकार विपक्ष के नेता का मान-भंग होना अपरिहार्य बना। इसलिए सम्भव है प्रभावक चरितकार को सूराचार्य के इस मान-भंग का उनके चरित्र में कोई उल्लेख करना अच्छा नहीं मालूम दिया हो और उन्होंने