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ताड़पत्रीय प्रन्थों में खरतर विरुद मिलने का उल्लेख कैसे संभव होता ? बिना पिता का पुत्र कैसे ? मुनि जिनविजय, पूर्णचन्द्र नाहर, सुखसम्पत्तिराज भंडारी, डा० ऋषभचन्द्र, अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा " मुनि मणिप्रभ सागर आदि सभी विद्वान खरतरगच्छ की उत्पत्ति वि० सं० की ११ वीं शताब्दी मानते हैं । उपाध्याय धर्मसागर ने जो खरतरगच्छ की उत्पत्ति का काल सं० १२०४ लिखा वह वास्तव में खरतरगच्छ की उत्पत्ति का नहीं है, अपितु सं० १२०४ में तो खरतरगच्छ से अन्य शाखा निकली जिसका नाम रुद्रपल्लीय खरतरगच्छ है ।
कतिपय विद्वानों के अनुसार तो यह शास्त्रार्थ दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वराचार्य एवं सूराचार्य के मध्य नहीं हुआ था । इस तथ्य की सिद्धि के लिए प्रायःकर प्रभावक - चरित्र का उल्लेख किया जाता है जिसमें सूराचार्य आदि प्रभावक पुरुषों का विस्तृत वृत्त वर्णित है, किन्तु. शास्त्रार्थ का कोई संकेत नहीं दिया है । यद्यपि यह सत्य है कि प्रभावक चरित्र में उस शास्त्रार्थ का संकेत नहीं दिया है, परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं हो सकता कि यह शास्त्रार्थ हुआ ही नहीं । मूलत: प्रभावक चरित्र के लेखक हैं प्रभाचन्द्र सूरि, जो एक चैत्यवासी आचार्य थे एवं सूराचार्य की परम्परा के समर्थक थे । चन्द्र द्वारा अपने पूर्वाचार्य की पराजय का उल्लेख करना लेखक की
अतः प्रभा
१ कथाकोष, प्रस्तावना
२ जैन लेख संग्रह, प्रस्तावना, भाग ३
३ ओसवाल जाति का इतिहास
जिनवाणी, जैन संस्कृति और राजस्थान, पृष्ठ २५६
खरतरगच्छ का इतिहास
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६ दादा चित्र संपुट
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