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ग्यारहवीं शदी में हो चुकी थी। दुर्लभराज का शासन १०६६ से १०७४ का मध्यवर्ती था । अतः इसी काल के मध्य खरतरगच्छ आविभूत हुआ होगा। यद्यपि किसी अज्ञात लेखक लिखित तपागच्छीय एक पट्टावली में खरतरगच्छ का उद्भव काल १२०४ निर्दिष्ट है, उपाध्याय धर्मसागर ने भी इसी संवत् का उल्लेख किया है, किन्तु वह सर्वथा निराधार है। इसकी प्रामाणिकता के लिए अनेक अकाट्य प्रमाण दिये जा सकते हैं। इस सम्बन्ध में सोहनराज भंसाली ने विशेष अनुसंधानपरक तथ्य प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने लिखा है कि कुछ एक अन्य गच्छीय पट्टावलियों में जो बहुत ही अर्वाचीन हैं उनमें खरतरगच्छ की उत्पति सं १२०४ में होना लिखा है पर यह मत सरासर भामक व वास्तविकता से परे है। जैसलमेर दुर्ग में पार्श्वनाथ मंदिर में प्राप्त शिलालेख जो सं० ११४७ का है। उसमें स्पष्ट लिखा है “खरतरगच्छ जिनशेखरसूरिभिः ।" सं० १९६८ में रचित देवभद्रसूरिकृत पार्श्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में ११७० में लिखित पट्टावली में खरतर विरुद मिलने का स्पष्ट उल्लेख है। इसी तरह जैतारण राजस्थान के धर्मनाथ स्वामी के मंदिर में सं० ११७१ माघ सुदी पंचमी का सं० ११६६ व सं० ११७४ के अभिलेखों में स्पष्ट लिखा है, "खरतरगच्छे सुविहिता गणाधीश्वर जिनदत्तसूरि।"३ मीनासर (बीकानेर) के पार्श्वनाथ के मंदिर में पाषाणप्रतिमा पर सं० ११८१ का लेख अंकित है, उसमें भी "खरतरगणाधीश्वर श्री जिनदत्तसूरिभिः" लिखा है। इस तरह यदि सं० १२०४ में ही खरतरगच्छ की उत्पत्ति होती तो सं० ११४७, सं० ११६९, सं० ११७१, सं० ११७४, सं० ११८१ के शिलालेखों में और सं० ११६८ व सं० ११७० के
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जैन लेख संग्रह, नाहर, लेखांक २१२४ जैसलमेर ज्ञान भंडार, ताड़पत्रीय ग्रथांक २६५-६६ कापरडा स्वर्ण-जयन्ति अंक, पृष्ठ १३६