________________
श्रीपत्तने दुर्लभराज राज्ये विजित्यवादे मठवासिसृरिणा वर्षाब्धि पक्षाप्रशशि प्रमाणं लेभेऽपि ये खरतरौ विरुद युग्मम् ।'
सुमति गणि ने सं० १२६५ में गणधर सार्द्ध शतक वृहद वृत्ति में खरतर विरुद प्राप्ति विषयक वर्णन निम्न प्रकार से किया है
किं बहुनेत्यं वादं कृत्वा विपक्षानिर्णित्य राजामात्य श्रेष्ठि सार्थवाह प्रभृति पुर-प्रधानः पुरुषः सह भट्टचट्टेषु वसति मार्ग प्रकाशन यशः पताकायमान काव्य बन्धान दुर्जन जन कर्णशूलान् साटोपं पठत्सु सत्सु प्रविष्टा वसतो प्राप्त खरतर विरुद भगवन्तः श्री जिनेश्वरसूरयः एवं गुजरय देशे श्री जिनेश्वरसूरिणा प्रथम चक्रे । २
आचार्य जिनचन्द्रसुरि का उल्लेख भी यहां वर्णनीय है :
यैः पूज्यैरणहिल्लपत्तनपुरे द्योसिदि शून्य क्षमा वर्षे दुर्लभ राजषादि पराजित्य प्रमाणोक्तिभिः। सरीन चैत्यवासिनः खरतर ख्याति जनेश्चार्पित श्रीमत् सूरिजिनेश्वराः समभवत्तत्पट्ट शोभकराः॥
अभिधान राजेन्द्र-कोश में संकलित सन्दर्भ के अनुसार
वैक्रम संवत् १०८० श्रीपत्तने वादिनो जित्वा खरतरेत्याख्यं विरुदं प्राप्तेन जिनेश्वरसूरिणा प्रवर्तिते गच्छेः -आत्मप्रबोध (१४१) आसीत तत्पादपंकजैकमधुकृत् श्रीवर्धमानाभिधः सूरिस्तस्य जिनेश्वराख्यगणभृजातो विनेयोत्तमः। यः प्रापत् शिवसिद्धिपक्ति (संवत १०८०) शरदि श्री पत्तने वादिनो जित्वा सद्विरुद्ध कृति खरतरेत्याख्यां नृपादेर्मुखात ( अष्ट० ३२, अष्ट०) उपाध्याय क्षमाकल्याण ने भी खरतर विरुद का उल्लेख किया है
. खरतरगच्छ सरि परम्परा, प्रशस्ति, ३७-३८ लेखन काल १५८२ २ गणधर सार्द्ध शतकान्तर्गत प्रकरण, पृष्ठ ११ ३ खरतरगच्छ पट्टावली, लेखन काल सं० १८३० ४ अभिधान राजेन्द्र कोश, तृतीय भाग, पृष्ठ ७२३