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बताया। अतः जिनेश्वरसूरि का अनुयायी-वर्ग या प्रभावित वर्ग उनके लिए 'खरतर' सम्बोधन व्यवहृत करने लगा। जिनेश्वरसूरि का प्रभाव विस्तृत रूप से फैला। उनका अनुयायी-वर्ग विशाल हो गया। अतः उनकी परम्परा के लिए 'खरतरगच्छ' शब्द का उपयोग होने लगा। खरतर-विरुद प्राप्ति का उल्लेख हमें अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है।
आचार्य जिनदत्तसूरि ने “तुम्हइहु पहु चाहिल दसिउ हियंइ बहुत्तु खरउ विमसउ” इस खरतरगच्छ-सूचक पंक्ति का उल्लेख किया है। इसी तथ्य के सम्बन्ध में पण्डित लालचन्द भगवान दास गांधी ने लिखा है-उपर्युक्तमेव गाथायां बहुतु खरउ पदं प्रयुज्य ग्रन्थकर्ताः निजाभिमतस्य विधि पथस्य "खरतर" इति गच्छ संज्ञा ध्वनितां वितय॑ते। विधि पथस्यैव तस्य कालक्रमेण प्रचालिता "खरतरगच्छ" इत्यभिधायवधि विद्यते ।
वृद्धाचार्य प्रबन्धावलीकार ने स्पष्टतः यह लिखा है कि दुर्लभराज ने परितुष्ट होकर जिनेश्वरसूरि को 'खरतर' विरुद दिया-रन्ना तुडेण 'खरतर' इह विरुदं दिन्नं । तओ परं खरतरगच्छो जाओ। यह संदर्भ खरतरगच्छ के लिए एक ऐतिहासिक मूल्य लिए है। खरतर-विरुद की प्राप्ति के बाद खरतरगच्छ उत्पन्न हुआ।
खरतरगच्छ परम्परा में निम्न प्रकार से उल्लेख किया गया है
तत्पट्ट पंकेरूह राजहंसा जिनेश्वरसूरि शिशेवतं साः। जयन्तु ते ये जिन शैव शासन-श्रुत-प्रवीणा भववासमक्षियत् ॥
१ अपभूश काव्यत्रयी, भूमिका, पृष्ठ ११६
वृद्धाचार्य प्रबन्धावली, जिनेश्वरसरि प्रबन्ध