________________
एवं सुविहित-पक्षधारकाः जिनेश्वरसूरयो विक्रमतः १०८० वर्षे "खरतर" विरुद्धारका जाता। .. एक अन्य पट्टावली के अनुसार-संवत् १०८० दुर्लमराज समाये ८४ मठपतीन् जीत्वा प्राप्त खरतर विरुदः।
उपरोक्त प्रमाणभूत उल्लेखों से यह निश्चित है कि दुर्लभराज की अध्यक्षता में आचार्य जिनेश्वरसूरि और सूराचार्य का शास्त्रार्थ हुआ था और जिनेश्वर को विजयश्री के रूप में खरतर विरुद की सम्प्राप्ति हुई थी। __ कतिपय विद्वानों के अनुसार यहां न तो शास्त्रार्थ हुआ था और न ही खरतर विरुद दिया गया। साम्प्रतिक विद्वानों ने ही नहीं अपितु शदियों पूर्व भी यह समस्या उपस्थित की जा चुकी थी। आचार्य जिनचन्द्रसूरि के समय में उपाध्याय धर्मसागर आदि ने इस सम्बन्ध में आक्षेप लगाये हैं। ___ अतः इस सन्दर्भ में एक विशाल संगीति का आयोजन किया गया, जिसमें सर्वसम्मति से खरतरगच्छ की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से मान्य की गई । महोपाध्याय समयसुन्दर ने इस घटना का समाचारी शतक में विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। इसी सम्बन्ध में अगरचन्द नाहटा एवं भंवरलाल नाहटा के युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि प्रन्थ में 'पाटण में चर्चाजय' खंड अवलोक्य है। आचार्य जिनदत्तसूरि, सुमति गणि, उपाध्याय जिनपाल' आदि के प्राचीनतम उल्लेख अपने-आप में अकाट्य प्रमाण हैं।
१ खरतरगच्छ पट्टावली, लेखन काल सं० १०३० २ उद्धत-युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि, भूमिका, पृष्ठ ४० ३ द्रष्टव्य-(क) गणधर सार्ध शतक, ६५, ६६
(ख) गुरुपारतन्त्र्य स्तोत्र, १० ४ द्रष्टव्य-जिनेश्वर चरित्र, कथाकोष, परिशिष्ट, पृष्ठ १२ ५ द्रष्टव्य-युगपधानाचार्य-गुर्वावली, पृष्ठ ३