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________________ कठिनता है । राजा ने पूछा- आप कितने साधु हैं ? जिनेश्वरसूरि ने कहा - अठारह साधु हैं। तब राजा ने कहा कि इसकी व्यवस्था हो जाएगी। आप राजपिण्ड का सेवन करें। तब जिनेश्वरसूरि ने कहामहाराज ! साधुओं को राजपिण्ड कल्प्य नहीं है । राजपिण्ड का सेवन शास्त्र में निषिद्ध है । राजा बोला - अस्तु ! ऐसा न सही । भिक्षा के समय राजकर्मचारी के साथ रहने से आपलोगों की भिक्षा सुलभ हो जाएगी। ... इस प्रकार वाद-विवाद में विपक्षियों को परास्त करके अन्त राजा और राजकीय अधिकारी पुरुषों के साथ वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि आदि ने सर्वप्रथम गुजरात में वसति में प्रवेश किया और सर्वप्रथम गुजरात में वसति-मार्ग' की स्थापना हुई । " उक्त उल्लेखों से स्पष्ट है कि आचार्य जिनेश्वर ने सूराचार्य एवं राजा की सभी युक्तियों का बड़ी कुशलतापूर्वक खण्डन करते हुए यथार्थता का निरूपण किया। जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों का जीवन कलुषित एवं अत्यन्त अपवादपूर्ण बताया। जिनेश्वरसूरि के वाक्चातुर्य के कारण तथा प्रखर पाण्डित्य से न केवल उनके विपक्षी ही पराजित हुए अपितु तत्रस्थ आसीन विद्वान एवं गणमान्य लोग भी प्रभावित हुए थे। जिनेश्वरसूरि की स्पष्टवादिता, आचार-निष्ठा तथा प्रखर तेजस्विता को देखकर ही उन्हें " खरतर " विरुद प्रदान किया गया अथवा "खरतर " सम्बोधन से सम्बोधित किया गया । शास्त्रार्थ विजयी : वर्धमान या जिनेश्वर ? खरतरगच्छ के अभ्युदय में शास्त्रार्थ - विजय की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है । कतिपय पट्टावलियों के अनुसार शास्त्रार्थ चर्चा के दौरान विपक्षी चैत्यवासियों के सामने आचार्य वर्धमानसूर और 1 १ युगप्रधानाचार्य - गुर्वावली, पृष्ठ ३ ६५ ५
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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