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आचार्य जिनेश्वरसूरि थे, तो कतिपय पट्टावलियों के अनुसार आचार्य जिनेश्वरसूरि और आचार्य बुद्धिसागरसूरि थे। . . ___प्राचीन प्रमाणों में युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली, वृद्धाचार्य-प्रबन्धावली और प्रभावक-चरित के सन्दर्भो को प्रमुखता से ग्रहण करना चाहिये । युगप्रधानाचार्य-गुर्वावली के अनुसार
गुरुभिः ( आचार्य वर्धमानसूरि ) भणितम-एष पण्डित जिनेश्वर उत्तर-प्रत्युत्तरं यद्भणिष्यति तदस्माकं सम्मतमेव ।
उक्त सन्दर्भ के आधार पर जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ में आचार्य वर्धमानसूरि का प्रतिनिधित्व किया। जबकि प्रभावक चरित में लिखा है
जिनेश्वरसूरिस्ततः सूरिरपरो बुद्धिसागरः। नामभ्यां विश्रुतौ पूज्यविहारे नुमतौ तदा । ददे शिक्षेति तैः श्रीमत्पत्तने चैत्यसूरिभिः।
विघ्नं सुविहितनां स्यात् तत्रावस्थानवाराणात् । इस प्रमाण के अनुसार आचार्य वर्धमानसूरि की अनुमति लेकर जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि चैत्यवासी आचार्यों को मजा चखाने के लिए अणहिलपुर गये। 'वृद्धाचार्य-प्रबन्धावली' के उल्लेखानुसार तो यह शास्त्रार्थ-विजय का प्रसंग आचार्य वर्धमानसूरि के स्वर्गारोहण के बाद हुआ
पच्छा वद्धमाणसूरी अणसणं काऊण देवलोगं पत्तो। तओ जिणेसरसूरि गच्छनायगो विहरमाणो वसुहं अणहिल्लपुर पट्टणे गओ । तत्थ चुलसीगच्छवासिणो भट्टारगा दवलिंगिणो मढवइणो चेइयवासिणो पासइ । पासित्ता जिण सासणुन्नइकए सिरि दुल्लह राज समाए वायं कायं ।। १ वृद्धाचार्य-प्रबन्धावली, जिनेश्वरसूरि प्रबन्धः