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अचानक राजा ने अपने अधिकारियों से कहा- अरे ! अन्य सभी आचार्यों के लिए रत्नपट्ट से निर्मित सात गद्दिका / गद्दियाँ बैठने के लिए हैं और ये चरित्रशील गुरु नीचे सामान्य आसन पर बैठे हैं, क्या हमारे यहाँ तदनुकूल गादियाँ नहीं ? इनके लिए भी विशिष्ठ गद्दिका लाओ। यह सुनकर आचार्य जिनेश्वरसूरि ने कहा - राजन् ! साधुओं को गड़िका पर बैठना उचित नहीं है । शास्त्रों में कहा है
भवति नियत मेवा संयमः स्याद्-विभूषा, नृपति ककुद । एतल्लोक हासश्व भिजोः । स्फुटतर इह संगः सातशीलत्वमुच्चे शितिन खलु मुमुक्षोः संगतं गद्दिकादि ॥
अर्थात् मुमुक्षु को गादी आदि का उपयोग करना योग्य नहीं है। 1 यह तो शृंगार और शरीर सुख का एक साधन है जिससे असंयमित मन अवश्य चंचल हो जाता है। इससे लोक में साधु की हँसी होती हैं । यह स्पष्टतया आसक्तिकारक है और इससे अत्यंत शारीरिक सुखशीलता बढ़ती है। इसलिए हे राजन् ! इसकी हमें आवश्यकता नहीं है ।
ये पंक्तियाँ सुन राजा उनके प्रति श्रद्धाभिभूत हो गया और उसने पूछा - "आप कहाँ निवास करते हैं। जिनेश्वरसूरि ने कहामहाराज ! जिस नगर में अनेक विपक्षी हो, वहाँ स्थान की प्राप्ति कैसी ? उनका यह उत्तर सुनकर राजा ने कहा - नगर के " कर डिहटी " " नामक मोहल्ले में एक वंशहीन पुरुष का विशाल भवन खाली पड़ा है, उसमें आप निवास करें । राजा की आज्ञा से उसी क्षण वह स्थान प्राप्त हो गया। राजा ने पूछा- आपके भोजन की क्या व्यवस्था है ? सूरि ने उत्तर दिया महाराज ! भोजन की भी वैसी
१ प्रभावक चरित के अनुसार व्रीहिहट्टी ।
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