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________________ पक्ष दुर्बल रहेगा और इनका पक्ष प्रबल, अतः उन्होंने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया और चुपचाप रहे । तब राजा ने ही राजकीय पुरुषों को सिद्धान्त ग्रन्थों का वेष्टन / गठरी लाने के भेजा । वे गए और शीघ्र ही प्रन्थों की गठरी ले आए। गठरी के खोलने पर सर्वप्रथम वह पृष्ठ दिखाई दिया, जिसमें निम्नलिखित गाथा प्रथम थी अनट्ठ पगडलेणं, वइज्जसयणसणं । उच्चार-भूमि- संपन्नं, इत्थीपसुविवज्जियं ॥ अर्थात् साधु को ऐसे स्थान में ठहरना चाहिए जो साधु के निमित्त नहीं, किन्तु अन्य किसी के लिए बनाया गया हो, जिसमें खान-पान और सोने की सुविधा हो, जिसमें मल-मूत्र त्याग के लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हो और जो स्त्री, पशु, नपुंसक आदि से वर्जित हो । - इस प्रकार 'वसति (वस्ती) में साधुओं को रहना चाहिए, न कि देव मंदिरों में' – यह सुनकर राजा ने कहा- यह तो ठीक ही कहा है। सारे अधिकारियों ने जान लिया कि हमारे चैत्यवासी गुरु निरुत्तर हो गये हैं । तब वहाँ पर उपस्थित सारे अधिकारीगण एवं मंत्री श्रीकरण राजा से प्रार्थना करने लगे-ये चैत्यवासी साधु तो हमारे गुरु हैं । इन लोगों ने समझा था कि राजा हमें बहुत मानते है । इसलिए हमारे संकोच से साधुओं के प्रति भी वे पक्षपात करेंगे ही । परन्तु राजा निष्पक्ष और न्यायप्रिय था । यह देखकर जिने - श्वरसूरि ने कहा- महाराज ! यहाँ कोई मंत्री श्रीकरण का गुरु है, तो कोई पश्वों का गुरु है। अधिक क्या कहें, इनमें सभी का परस्पर गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बना हुआ है। हम आपसे पूछते हैं कि इस लाठी का सम्बन्ध किसके साथ है ? राजा ने कहा - इसका सम्बन्ध मेरे साथ है । जिनेश्वरसूरि ने कहा - महाराज ! इस तरह सब कोई किसी न किसी का सम्बन्धी बना हुआ है, किन्तु हमारा कोई सम्बन्धी नहीं है । यह सुनकर राजा बोला- आप मेरे आत्म-सम्बन्धी गुरु हैं । ६३
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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