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________________ चार से इतने दुखित हो गये कि वे अपनी आत्म-पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ओह ! मैं अपने मस्तिष्क के शूल की पुकार किसके आगे जाकर करू?' ___पुरातत्वाचार्य जिनविजय ने लिखा है कि उस समय में श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में उन यतिजनों के समूह का प्राबल्य था, जो अधिकतर चैत्यों अथवा जिन मन्दिरों में निवास करते थे। ये यतिजन जैन मन्दिर, जो, उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, में अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादि में प्रवृत्त होते और सोते-बैठते । अर्थात चैत्य ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। इनके साथ उनके आचार विचार भी बहुत से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के थे, जो जैन शास्त्रों में वर्णित निर्ग्रन्थ जैन मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे। वे एक तरह से मठपति थे। चंत्यवासियों का राज्याधिकारियों पर भी अत्यधिक प्रभाव था। प्रभावक-चरित्र में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार गुजरात की राजधानी अणहिलपुर पत्तन के स्थापक चापोत्कट वनराज (विक्रम सं० ८०२) आचार्य शीलगुणसूरि के शिष्य थे। आचार्य चैत्यवासी थे। आचार्य के निर्देशानुसार वनराज ने यह आज्ञा घोषित कर रखी थी कि उसके राज्य में चैत्यवासी मुनियों के अतिरिक्त अन्य सुविहित मुनि ठहर नहीं सकते चैत्यगच्छ यतिवात, सम्मतो वसतान् मुनिः । नगरे मुनिभिर्नात्र वस्तव्यं तदसम्मतेः॥ ये चैत्यवासी यतिजन असामाजिक, अनैतिक एवं अधार्मिक तत्त्वों सम्बोध प्रकरण ७६ । . २ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्ठम-शताब्दी स्मृति-ग्रन्थ, पृष्ठ १ । प्रवावक-चरित्रः १८६ पृष्ठ १६३
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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